Monday, 14 May 2012

छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद - 1


                                                             क्या सेना की ज़रुरत है ?


विश्व में ऐसे देश उंगलियों पर गिने जा सकते हैं जहां सेना का राजनीति में हस्तक्षेप नहीं है। इनमें अधिकतर यूरोप के जनतांत्रिक देश हैं। विकासशील दुनिया में भारत संभवत: एकमात्र देश है जहां सेना ने अपने आपको राजनीति से दूर रखा है। कहने को तो अमेरिका विश्व की सबसे प्रमुख जनतांत्रिक देश है, लेकिन वहां सैन्यतंत्र और पूंजीतंत्र के बीच लंबे समय से गठजोड़ चला आ रहा है; और दोनों मिलकर राजनीति को प्रभावित ही नहीं संचालित भी करते हैं। आज यह चर्चा इसलिए कि छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद से निपटने के लिए सेना को तैनात करने की बात पिछले कुछ समय से चल रही है। अभी हाल में 6 अप्रैल को दंतेवाड़ा जिले में नक्सलियों ने जो तांडव किया उसके बाद यह मांग कुछ ज्यादा ही जोर के साथ उठाई जा रही है। एक भीषण समस्या प्रदेश के सामने है। उसका निराकरण कैसे हो यह हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से सोच रहा है। सेना तैनात करने से समस्या हल हो जाएगी, यह बात भावना के स्तर पर बहुत बड़े वर्ग को अपील कर सकती है, किंतु यह विचार कर लेना उचित होगा कि इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे।

भारत में ऐसा सोचने वालों की कमी नहीं है कि यह देश जनतंत्र के उपयुक्त नहीं है। उनके बीच एक छोटा वर्ग यह भी मान कर चलता है कि भारत को स्वतंत्र ही नहीं होना चाहिए था। हम कई बार सुनते हैं कि इससे तो अंग्रेजों का राज ही अच्छा था। इसी तरह बहुत से लोग मानते हैं कि यहां तो मिलिट्री का राज होना चाहिए था। ऐसे लोग कल्पना करते हैं कि हंटर मारने से सब ठीक हो जाएगा। गनीमत है कि इस तरह की सोच रखने वाले बहुमत में नहीं हैं। जनतंत्र को हिकारत की नजर से देखने वाला यही वर्ग आम चुनावों में भाग नहीं लेता, लेकिन चुनाव के बाद निर्वाचित नेताओं के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करने में एक क्षण भी नहीं गंवाता। जब जून 2005 में बस्तर में सलवा जुड़ूम की शुरूआत हुई थी तो इसी वर्ग ने रायपुर व अन्य शहरों में कारों और बाइकों पर सलवा जुड़ूम रैलियां निकाली थी। इनका मकसद सरकार की निगाह में चढ़ना था। वे इसमें कामयाब भी हुए होंगे। वरना इस तथ्य को वे भी जानते थे कि रायपुर में रैली निकालने से नक्सलवाद खत्म नहीं होगा। आज यही लोग जब बढ़-चढ़ कर सेना का उपयोग करने की मांग कर रहे हैं तो इनके असली इरादे क्या हैं, यह समझा जा सकता है।

ऐसे लोगों की बात को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है, लेकिन देश में राजनीति की समझ रखने वालों का एक छोटा सा तबका भी है जो सेना का इस्तेमाल करने की मांग कुछ तर्कों के साथ कर रहा है। ऐसे लेख या वक्तव्य प्रकाशित हुए हैं जिनमें कहा गया है कि आंतरिक अशांति से निपटने के लिए सेना को बुलाया जाना कोई नई बात नहीं है। वे कश्मीर से लेकर नगालैण्ड तक और 'ऑपरेशन ब्लूस्टार' का उदाहरण देते हैं। यह तर्क देते समय वे तस्वीर का दूसरा पहलू पेश करने से शायद जानबूझ कर बच रहे हैं। एक तो कश्मीर, नगालैण्ड या मणिपुर की स्थितियां बेहद अलग हैं। उसके बावजूद यह सच्चाई सबके सामने है कि सेना को भेजने से शांति कायम करने का लक्ष्य हासिल अब तक नहीं किया जा सका है। इसके विपरीत इन प्रदेशों में भारतीय जनतंत्र के प्रति अनास्था और अविश्वास की भावना दिन-ब-दिन प्रबल होती जा रही है। इसी तरह 'ऑपरेशन ब्लूस्टार' की परिणति जिस त्रासदी में हुई उससे कौन परिचित नहीं है। इस सच्चाई को जानने के बाद भी यदि कोई सेना के प्रयोग को अनुकरणीय उदाहरण मानना है तो यह पहले दर्जे की नासमझी ही मानी जाएगी।

यह स्पष्ट है कि देश के भीतर पिछले वर्षों में जहां कहीं लंबे समय के लिए सेना का इस्तेमाल किया गया है, उससे फायदे की बजाय नुकसान ही हुआ है। हमारे सैन्य बलों ने प्राकृतिक विपदाओं के समय अथवा साम्प्रदायिक दंगों जैसी स्थितियों में निश्चित रूप से प्रशंसनीय भूमिका निभाई है, लेकिन ऐसे अवसरों पर उनकी तैनाती पांच-सात दिनों से ज्यादा नहीं रही। दूसरी ओर जब भी सेना को लंबे समय के लिए लगाया गया है, उसने जनसामान्य के बीच अपयश ही अर्जित किया है। दरअसल, नागरिक प्रशासन और सैन्य प्रशासन दोनों की अवधारणा व कार्यशैली बिलकुल अलग-अलग हैं। नागरिक प्रशासन सेना के हाथ में सौंप दिया जाए तो सेना के निरंकुश होने की आशंका बन जाती है। यही वजह है कि असम हो या उत्तर-पूर्व, वहां सशस्त्र बलों को दी गई विशेष शक्तियों को समाप्त करने की मांग लंबे समय से उठाई जा रही है।  इसी संदर्भ में एक और सवाल अपने आप उठता है कि क्या राज्य की पुलिस अक्षम और पंगु हो चुकी है अन्यथा सेना की क्या जरूरत थी। ऐसे में यह प्रश्न भी उठता है पुलिस बल को दुरुस्त बनाने के लिए प्रांतीय सरकारें क्या कदम उठा रही हैं। 

इन प्रश्नों का सामना करने के बजाय जब राजनेता सेना को आमंत्रित करने की संभावनाएं टटोलते हैं तो हैरानी होती है। कांग्रेसी इस मुद्दे पर थोड़ा बचकर चलते हैं; या जैसा कि पी. चिदंबरम ने किया, अपनी बात से पलट भी जाते हैं। किंतु मोटे तौर पर भाजपा को इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती। यह संभवत: इसलिए है कि भाजपा बाहुबल या अस्त्रबल में कुछ ज्यादा ही विश्वास रखती है। इसी वजह से बहुत सारे फौजी अधिकारी सेवानिवृत्ति के बाद भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो जाते हैं। इनके ध्यान में हम सिर्फ इतना लाना चाहते हैं कि कल को अगर भारत में सैन्य शासन आ गया तो फिर आपको चुनाव लड़ने-जीतने की बात पूरी तरह से भूलनी होगी। सैन्य शासकों के सामने जनप्रतिनिधियों की क्या बिसात!
हम मानते हैं कि यदि भारत के शीर्ष सैन्य अधिकारी सेना को बस्तर में नहीं झोंकना चाहते तो ठीक कर रहे हैं। इतना जरूर हम कहेंगे कि थलसेना प्रमुख और वायुसेना प्रमुख दोनों को टीवी पर इस बारे में कुछ भी बोलने से बचना चाहिए था। उनका जो भी दृष्टिकोण हो, यह रक्षामंत्री या प्रधानमंत्री के माध्यम से व्यक्त होना मर्यादापूर्ण माना जाता। इसके सार्वजनिक बयानों पर छ.ग. के मुख्यमंत्री का रोष स्वाभाविक था। बहरहाल, जिस प्रदेश में के.एफ. रुस्तमजी व पी.वी. राजगोपाल से लेकर अशोक पटेल व विजय रमन तक श्रेष्ठ सुयोग्य पुलिस अधिकारियों की सुदीर्घ परंपरा रही हो, उसी प्रदेश की पुलिस आज इतनी लाचार तथा निस्तेज क्यों नज़र आ रही है, इस बारे में डॉ. रमनसिंह  विचार कर कुछ ठोस निर्णय लें, यही हमारी राय है।

15 अप्रैल 2010 को देशबंधु में प्रकाशित 

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