रमाकांत श्रीवास्तव का नया कहानी संग्रह ''टोरकिल का शहर'' अभी हाल में प्रकाशित हुआ है। मन हुआ कि उस पर कुछ लिखा जाए। सोचते-सोचते रमाकांत व उनकी कहानियों के इर्द-गिर्द एक पूरी तस्वीर ही जेहन में उभर आई।
छत्तीसगढ़ में हिन्दी कहानी का इतिहास लगभग सौ वर्ष पुराना है याने उतना ही जितना आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य का। यह इतिहास पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के साथ प्रारंभ होता है। उनकी ''बिजली'' और ''झलमला'' जैसी कहानियां भारतीय कथा साहित्य की अनमोल निधि हैं। यद्यपि बच्चू जांजगीरी की मानें तो माधवराव सप्रे की ''टोकरी भर मिट्टी'' हिन्दी की पहली कहानी है तथापि मेरी समझ में यह स्थापना कर बच्चू भाई ने अपने प्रदेश का गौरवगान करने का ही पुण्य काम किया है। ''टोकरी भर मिट्टी'' सच पूछिए तो लंबे समय से चली आ रही लोककथा का लिप्यांतर है। सप्रे जी का जो महती योगदान है वह प्रदेश के पहले पत्रकार और उसके साथ एक श्रेष्ठ निबंधकार के रूप में है। बख्शी जी द्वारा स्थापित परंपरा को आगे बढ़ाने में प्रदेश के अनेक कहानीकारों का योगदान रहा है। इनमें मुक्तिबोध जी का नाम लिया जा सकता है जिनकी ''विपात्र'' तथा कुछ अन्य कहानियां राजनांदगांव में बीते अंतिम वर्षों में ही लिखी गईं। लेकिन बख्शी जी के बाद छत्तीसगढ़ ने हिन्दी को जो बड़ा कहानीकार दिया उसे जैसे हमने भुला दिया है। प्रदेश का संस्कृति विभाग जो चौबीस गुणा सात की शैली में काम करता है उसे तो इस कथा शिल्पी का शायद नाम भी नहीं मालूम है। जिन्हें साहित्य की थोड़ी बहुत जानकारी है वे जान गए होंगे कि मैं बस्तर के सपूत शानी की बात कर रहा हूं। शानी का न तो कोई स्मारक है, न बस्तर के लोग उन्हें याद करते हैं और न छत्तीसगढ़ के लेखकों की स्मृति में वे कभी आते हैं। शानी के समकालीन मनहर चौहान ने भी किसी समय कथा जगत में अपनी धाक जमाई थी। चर्चित ''सचेतन कहानी आंदोलन'' के वे एक प्रमुख स्तंभ थे।
प्रदेश के कहानीकारों में एक नाम विनोदकुमार शुक्ल का भी नाम लिया जा सकता है। उन्होंने 'महाविद्यालय', 'घर' आदि पांच या छह कहानियां कुल जमा लिखीं जिनकी अपने समय में चर्चा भी हुई। अगर मुझे सही याद है तो ये सारी कहानियां 1970 के पहले प्रकाशित हो चुकी थी। उसके बाद श्री शुक्ल को पाठकों ने एक उपन्यास लेखक के रूप में जाना। ''नौकर की कमीज'' हिन्दी में एक नए मुहावरे का उपन्यास है और मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि लेखक की सारी कहानियां इस उपन्यास के सामने प्रभाहीन हो जाती हैं। विभु कुमार व जगदलपुर के कृष्ण शुक्ल की कहानियां भी सत्तर के दशक में चर्चित हुईं। विभु ने तो नाटककार व रंगकर्मी के रूप में भी प्रसिध्दि पाई। लेकिन इनका कथालेखन का समय संक्षिप्त ही रहा आया। इस कड़ी में मैं रमेश याज्ञिक का जिक्र करना जरूरी समझता हूं जिन्होंने अपनी जीवन संध्या में कहानियां लिखना प्रारंभ किया था और थोड़े से समय के भीतर में वे चर्चित भी होने लगे थे।
इस सिलसिले को आगे बढ़ाने के लिए पिछले तीन दशकों में अनेक कहानी लेखक सामने आए। उनमें से कुछ लगातार कहानियां लिख रहे हैं, कुछ का लिखना एकदम बंद हो चुका है, और कुछ अपनी सामर्थ्य का सदुपयोग संपन्न संस्थाओं एवं संस्थानों के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करने में कर रहे हैं। इन तमाम साहित्यकारों का नामोल्लेख कथा साहित्य में उनके योगदान पर अंतिम रूप से अभी कुछ कहना उपयुक्त नहीं होगा। आखिरकार, हर कहानी लेखक गुलेरी तो नहीं होता जो सिर्फ तीन कहानियां लिखकर अमर हो गए। इसलिए जिनकी कहानियां अभी लगातार सामने आ रही हैं अथवा आयु जिनके पक्ष में है, उन पर बाद में बात करना ही बेहतर होगा।
इस विराट चित्र के भीतर मैं रमाकांत श्रीवास्तव को देखता हूं। रमाकांत गत चार दशक से कथालेखन में सक्रिय हैं। ''टोरकिल का शहर'' उनका पांचवा कथासंग्रह और कुल मिलाकर दसवीं या बारहवीं पुस्तक है। उनकी गति कहानी के अलावा निबंध, समीक्षा फिल्म, ललितकला और बाल साहित्य में भी है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि प्रदेश के लेखकों में रूपंकर कलाओं की जैसी समझ उनको है वैसी और किसी को भी नहीं। इसके अलावा वे सामाजिक सरोकारों वाले सक्रिय नागरिक हैं। इस तरह उनके पास अनुभवों का जो विस्तार है वह प्रदेश में गिने-चुने रचनाकारों के पास ही है। ऐसे गुणों के बावजूद रमाकांत की मुश्किल यह है कि वे आत्मप्रचार में विश्वास नहीं रखते। वे दिल्ली, भोपाल, इलाहाबाद जाकर साहित्य के मसीहाओं से फौरी दोस्ती करने में भी विश्वास नहीं रखते। इसलिए हिन्दी जगत में उन्हें जो समादर मिलना चाहिए वह अभी तक नहीं मिल पाया है। सच पूछिए तो वे अकेले नहीं हैं। उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हृदयेश तथा बिहार के पूर्णिया में चन्द्रकिशोर जायसवाल जैसे समर्थ रचनाकार हैं जिनको उनके प्राप्य से मानो किसी षडयंत्र के तहत वंचित रखा गया है।
यह मानी हुई बात है कि साहित्य रचने की शुरुआत कविता के साथ हुई थी। विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ काव्य रचनाएं ही हैं। लेकिन इसके साथ यह स्थापित सत्य भी है कि कविता के बरक्स कहानी मनुष्य को कहीं ज्यादा मुदित और स्फुरित करते आई है। यूरोप में ईसप की नीति कथाएं हो या पश्चिम एशिया में अलिफ लैला के किस्से (सहस्त्र रजनी चरित) या भारत की समृध्द साहित्य परंपरा में पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक कथाएं और कथा सरित् सागर। इसकी वजह शायद यही है कि कहानी के साथ श्रोता या पाठक तुरंत तादात्म्य स्थापित कर लेता है। वह उसमें अपने जीवन का अक्स भी शायद ढूंढ पाता है। इसीलिए प्रेमचंद आज भी हमारे बड़े लेखक बने हुए हैं। रवीन्द्रनाथ की कविताओं को जन-जन तक पहुंचने में संगीत का आश्रय मिला लेकिन शरतचन्द्र की कहानियां देखते ही देखते लोगों के हृदय में घर कर गईं।
इसी कसौटी पर रमाकांत श्रीवास्तव की कहानियों को देखा जा सकता है। टोरकिल का शहर में उनका कुल जमा दस कहानियां संकलित है। इस पांचवें संग्रह को मिलाकर उनकी अब तक पचास-साठ कहानियां प्रकाशित हुई होंगी। इन्हें पढ़कर एक बारगी समझ आ जाता है कि रमाकांत में किस्सागोई की विलक्षण क्षमता है। यूं तो हिन्दी में कथाकारों की कोई कमी नहीं है, लेकिन इधर कुछ सालों में कहानी से कथातत्व का लोप होते जा रहा है। कई बार ऐसा लगता है कि जिसे कहानी समझकर पढ़ रहे हैं वह कहीं गद्य गीत तो नहीं है। कुछ सालों पहले जब लातिन अमेरिकी लेखक मार्क्वेज को नोबेल पुरस्कार मिला और उनके उपन्यासों की चर्चा होने लगी तो हिन्दी में भी उसी शैली में 'जादुई यथार्थवाद' की कहानियां लिखी जाने लगीं। इनमें कथावस्तु गौण एवं शिल्प का चमत्कार प्रमुख था, लेकिन लिखने वाले चर्चित लेखक थे सो उनकी आलोचना कौन करता!
इस तरह रमाकांत एक साहस का काम कर रहे हैं। वे धारा के विपरीत नाव खे रहे हैं। उनकी कहानियों में जो कथारस है वह अच्छे साहित्य की आस में टकटकी लगाए प्यासे पाठकों के लिए स्वाति जल है, लेकिन जिनकी क्षमता शब्दों की पच्चीकारी तक सीमित है, वे रमाकांत की कहानियों को पढ़कर सिर्फ अपना सिर धुन सकते हैं।
रमाकांत श्रीवास्तव के अनुभवों का संसार विशाल है जैसा कि इस संग्रह की कहानियों को पढ़कर पता चलता है। छत्तीसगढ़ के एक कस्बे में रहते हुए कैसे उन्होंने इतने अनुभव अर्जित किए और विश्व दृष्टि विकसित की, यह बहुतों के लिए आश्चर्य और शोध का विषय हो सकता है। इस संकलन में दो कहानियां पहली ''अमेरिकी राष्ट्रपति और टेड़गी मास्साब'' तथा दूसरी ''सद्दाम का सातवां महल'' 9-11 के बाद उपजी परिस्थितियों पर लिखी कहानियां हैं। मुझे याद नहीं पड़ता अगर अन्य किसी हिन्दी कथाकार ने अमेरिका नवसाम्राज्यवाद के खिलाफ कोई कहानी लिखी हो, वह भी इस शिद्दत और साफगोई के साथ। पहली कहानी में एक तरफ अमेरिका के प्रति प्रबल होते जा रहे भारतीय आकर्षण का वर्णन है, तो दूसरी तरफ अपने घर लौटने में जो आनंद है तथा अपनी जमीन, अपना आसमान और अपने लोग क्या मायने रखते हैं इसकी मार्मिक व्याख्या है। दूसरी कहानी अमेरिका और उसके पिछलग्गू ब्रिटेन के युध्दोन्माद पर सीधे-सीधे आक्रमण करती हैं।
रमाकांत ने अपनी कहानियों में पत्रकार, शिक्षक, साहित्यकार, कलाकार याने कुल मिलाकर बुध्दिजीवी समाज के आंतरिक और जटिल मनोभावों को भी बखूबी प्रकट किया है। ''राजधानी से गुमी किताब'' साहित्यकारों पर केन्द्रित है तो ''शताब्दी प्रवेश'' कलाकारों पर तथा दोनों कहानियां बेबाकी के साथ बताती हैं कि हमारे कथित बुध्दिजीवी व संस्कृति कर्मी दोहरा जीवन जीते हैं एवं अपने आप के साथ छल करते हैं। 'महोत्सव' कहानी मीडिया जगत के व्यवसायीकरण पर गहरा वार करती है, यद्यपि रमाकांत उसे तार्किक परिणति तक नहीं पहुंचा सके। इस संकलन में ''प्रकृति प्रेम'' शीर्षक से भी एक कहानी है जिसमें आप कथाकार के अपने नगर खैरागढ़ को भी देख सकते हैं। यह कहानी उन नेताओं, अफसरों और व्यापारियों पर गहरा कटाक्ष करती है जिनकी संवेदनाएं प्राकृतिक विपदा के समय भी नहीं जागती व जिनका जीवन अपनी ही धुरी पर घूमता रहता है।
''टोरकिल का शहर'' स्वयं लेखक की संकलन में संभवत: इस दृष्टि में सबसे महत्वपूर्ण कहानी है क्योंकि पुस्तक का शीर्षक वहीं से उठाया गया है। एक सांमती नगर के परिवेश में रची गई यह कहानी उन खौफनाक स्थितियों का चित्रण करती है जिनमें जीने के लिए आम नागरिक अभिशप्त है। एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। उसे सत्ताधीशों और बाहुबलियों की कृपा पर ही मानो जीना है- यह भयावह संदेश इस कहानी से मिलता है। किसी विदेशी कार्टून कथा के खलनायक को सामने रखकर लिखी गई इस कहानी का अंत एक गहरी उदासी में होता है कि इस देश में या इस समाज में एक आम इंसान के लिए सम्मान के साथ जीना कितना मुश्किल है, कि आत्म निर्वासन में ही वह अपना बचा हुआ जीवन जी सकता है।
मेरी दृष्टि में चैम्पियन इस संकलन की सबसे ताकतवर कहानी है। यह कहानी एक ओर जीवन के प्रति आस्था और विश्वास का संचार करती है, दूसरी ओर सामान्य मनुष्य के भीतर छुपे हुए शिशु की निश्छलता को प्रतिबिम्बित करती है और तीसरी ओर इस विडंबना को भी उजागर करती है कि ऐसे कितने ही लोग हैं जिनकी संभावनाएं, अवसर और आश्रय न मिल पाने के कारण मुरझा जाती हैं। यह कहानी एक नन्हे छात्र की है जो अपने गुरु का सहारा पाकर विपरीत परिस्थितियों से लड़ते हुए खेल में चैम्पियन बनता है और पुरस्कार पाते समय उदास हो जाता है कि उसके वे साथी कहीं पीछे छूट गए जिन्हें वह अपने से ज्यादा काबिल मानता है। रमाकांत की यह कहानी हमें आश्वस्त करती है कि निश्छलता आज भी जीवित व संभव है।
इस संकलन में ''अप्रत्याशित'' कहानी एक फैंटेसी रचती है। चेखव की अमर कहानी ''एक क्लर्क की मौत'' का स्मरण इसे पढ़कर सहसा हो आता है। लेकिन चेखव की कहानी में जहां कार्य कारण स्पष्ट है इसमें वह नदारद है। यह कहानी इस रूप में फैन्टेसी है कि आम नागरिक दिन प्रतिदिन विपरीत परिस्थितियों का सामना करता है और उसके छोटे-मोटे काम भी बिना जद्दोजहद के पूरे नहीं हो पाते। ऐसे में अगर एक दिन अचानक सारा जीवनयापन सामान्य गति से चलने लगे तो यह एक ऐसी अटपटी और असंभव सी प्रतीत होगी जो नागरिक को पागलपन नहीं तो नर्वस ब्रेकडाउन की सीमा तक तो पहुंचा ही देगी। इसी तरह ''सिविल लाइन्स का भूत'' कहानी है जो परसाई जी की बहुचर्चित कहानी ''भोलाराम का जीव'' की याद दिलाती है। दोनों कहानियां प्रशासनतंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार पर चोट करती है लेकिन अलग-अलग तरीके से। सिविल लाइन का भूत मुक्ति पाना चाहता है इस हेतु यज्ञ की जरूरत है लेकिन शर्त यह कि यज्ञ में बेइमानी का एक पैसा भी नहीं लगना चाहिए। जाहिर है कि ऐसे पैसे का इंतजाम नहीं हो पाता। हमारे वर्तमान की दारूण सच्चाई का बयान इस कहानी में साफ तौर पर है।
मैं अपने मित्र व साथी रमाकांत श्रीवास्तव को इस कहानी संकलन के लिए बधाई देता हूं। मैं अपने स्तंभ के पाठकों को राय देना चाहता हूं कि खरीदकर या मांगकर इन कहानियों को अवश्य पढ़े। इसमें उनका लाभ होगा और पाठक जो अपनी राय देंगे उससे लेखक को भी अपनी छोटी- मोटी गलतियाँ सुधारने का मौका मिलेगा।
19 और 26 फ़रवरी 2009 को देशबंधु में प्रकाशित
30 जनवरी 2009 को देशबंधु में प्रकाशित
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Lalit Surjan
Chief Editor
DESHBANDHU
RAIPUR 492001
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