आह्वान से आगे
पिछले तीन सप्ताह के दौरान इसी स्थान पर जो तीन संपादकीय प्रकाशित हुए उन पर पाठकों में चर्चा हो रही है। संकेत मिलता है कि अनेक मित्र आपस में बैठकर बातचीत करना चाहते हैं ताकि कोई नक्शा बन सके। ऐसी कोई बैठक शायद उस समय संभव होगी जब हम पुरानी बातों को दोहराने और आरोप प्रत्यारोप के बजाय मुद्दों को रेखांकित कर सकेंगे। मैं अपनी ओर से निम्नलिखित मुद्दे प्रस्तावित कर रहा हूं-
1. नक्सल समस्या से निपटने केन्द्र सरकार की क्या भूमिका हो?
2. इसी संदर्भ में राज्य सरकार की क्या भूमिका हो?
3. क्या सेना की सहायता ली जाए?
4. क्या पहले नक्सलियों से पूरी तरह निपट लिया जाए उसके बाद विकास हो, या फिर विकास कार्यक्रम तथा जवाबी कार्रवाई साथ-साथ चलती रहे?
5. इस बारे में मीडिया की क्या भूमिका हो?
6. देश-प्रदेश के बुध्दिजीवियों की भूमिका क्या हो?
केन्द्र और राज्य सरकार दोनों इस बात पर सहमत नजर आते हैं कि केन्द्र वहीं तक मदद करेगा, जहां तक राज्य को उसकी जरूरत होगी तथा छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री को इस बारे में केन्द्र से कोई शिकायत नहीं है। यदि केन्द्र में बैठे भाजपा अथवा कांग्रेस के बड़े नेताओं ने अपने-अपने कारणों से भ्रम फैलाने की कोशिश की है तो डॉ. रमन सिंह ने हाल ही दिल्ली यात्रा के दौरान पत्रकारवार्ता में इसे स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें केन्द्र से आवश्यक सहयोग मिल रहा है। इस स्पष्ट बयान के बाद छ.ग. में कांग्रेस के नेताओं को इस मुद्दे पर आंदोलन चलाना बंद कर देना चाहिए। अपने अस्तित्व प्रदर्शन के लिए अन्य मुद्दे हैं जिन पर वे आंदोलन कर सकते हैं। भाजपा के गैर-जनाधार वाले बड़े नेताओं को भी मुख्यमंत्री पर हावी होने या उन्हें दरकिनार करने की कोशिश करने से बचना चाहिए।
दूसरे बिंदु पर मुख्यमंत्री का रुख साफ है। वे इस समस्या पर अपने निर्णयों की पूरी जिम्मेदारी लेते हैं। समस्या से निपटने के लिए उन्हें केन्द्र सरकार से जो सहयोग चाहिए, खासकर अंतर्राज्यीय साझा रणनीति के लिए, उसे भी वे एकाधिक बार सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर चुके हैं। दूसरे शब्दों में केन्द्र राज्य संबंधों के अंतर्गत राज्य के अपने अधिकार के प्रति मुख्यमंत्री सजग व सतर्क हैं। उनके निर्णयों से यदि कहीं आलोचना की गुंजाइश बनती हो तो उसका हक उनके विरोधियों को भी है और अध्येताओं को भी।
जहां तक सेना बुलाने का मामला है यह एक नाजुक मसला है और इस पर बिना सोचे-समझे भावनावश राय दे देना उचित नहीं है। डॉ. रमन सिंह स्वयं कह रहे हैं कि उन्हें सेना की जरूरत नक्सलियों पर हमले करने के लिए नहीं है। सीआरपीएफ के विशेष महानिदेशक विजय रमन तो पहले दिन से कह रहे हैं कि नक्सली हमारे देशवासी हैं और कोई भी युध्द देशवासियों के साथ नहीं लड़ा जाता। चिंतलनार नरसंहार की जांच जिन अनुभवी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ई.एन. राममोहन ने की वे भी कहते हैं कि वायुसेना की मदद लेने की बात नासमझी है। देश के थलसेना और वायुसेना प्रमुख पहले ही इसके विरूध्द अपनी राय व्यक्त कर चुके हैं। जो भी लोग समझते हैं कि सेना बुलाने से हल निकलेगा, उन्हें इन वक्तव्यों पर मनन करना चाहिए। मैं एक बार फिर मुख्यमंत्री के दिल्ली में दिए वक्तव्य का उल्लेख करना चाहूंगा कि नक्सलियों से निपटने की रणनीति सुरक्षा विशेषज्ञ ही तय करें। बेहतर होगा कि इस मुद्दे को अनावश्यक तूल देकर जनभावनाएं न भड़काई जाए।
चौथी बात- यह सही है कि जिन दुर्गम इलाकों में नक्सलियों की ही चल रही है वहां विकास कार्य तो क्या, सामान्य प्रशासन भी नहीं चल पाता। यहां पहली प्राथमिकता नागरिक प्रशासन कायम करने की ही होगी, लेकिन नक्सली विकास कार्य नहीं करने देते, इस आड में पूरे बस्तर में आप काम नहीं रोक सकते। यहां वांछित गति से विकास कार्य क्यों नहीं हो रहे हैं इस पर सरकार को पुनरावलोकन करने की आवश्यकता है। अभी बस्तर के लिए एक विशेष कार्यकारी दल बना दिया गया है जिसके अध्यक्ष मुख्य सचिव हैं। यह फिर एक औपचारिकता का निर्वाह मात्र है। क्योंकि मुख्य सचिव को रायपुर में ही हजार काम रहते हैं। यहां डॉ. रमन सिंह से दृढ़ राजनीतिक इच्छा का परिचय देने की अपेक्षा है। जैसा कि मैं पूर्व में कह चुका हूं, वे मुख्य सचिव स्तर के किसी कर्मठ, ईमानदार और कल्पनाशील अधिकारी को बस्तर विकास की एकल जिम्मेदारी दे दें। अगर चारामा से जगदलपुर तक भी विकास कार्य वांछित रूप में होते हैं तो उससे सरकार की साख बढ़ेगी तथा आदिवासी अपने आपको नक्सली दबाव से मुक्त करने प्रेरित होंगे।
पांचवीं बात मीडिया की- आम जनता को यह जानना चाहिए कि अखबारों की संख्या में बेतरह इजाफा हुआ है तथा अधिकतर अखबारों में अब ऐसे पत्रकार नहीं हैं जो किसी विषय का गहराई में जाकर अध्ययन करते हो। अखबार इस कमी के बावजूद समस्या के प्रति बेखबर और तटस्थ नहीं है, भले ही कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए। इससे बड़ी समस्या टीवी है। टीवी एक क्रूर माध्यम है। वह कल कही बात को आज भूल सकता है। लिखित कुछ भी नहीं है और दृश्यों को अपनी सुविधानुसार परिभाषित किया जा सकता है। नेता, अफसर और बुध्दिजीवी टीवी पर अपना मुखड़ा देखने में अभिमान महसूस करते व उसके लिए लालायित रहते हैं। फिर भले ही विनोद दुआ और अर्णब गोस्वामी जैसे सूत्रधार उनके पद और गरिमा का ख्याल रखें या न रखें। इसलिए टीवी पर किसी घटना की खबर सुनने तक तो ठीक है। इसमें जो बहसें होती हैं उन पर सोच-समझ कर ही विश्वास करना उचित होगा।
अंतिम बिंदु- इस प्रदेश के अनेक बुध्दिजीवियों को इस बात पर आपत्ति है कि बाहर के बुध्दिजीवी यहाँ क्यों आते हैं? देखिए! यह जनतंत्र है और हर नागरिक को किसी भी मुद्दे पर अपनी राय बनाने का हक है। लेकिन नक्सल मुद्दे को लेकर जो विरोध है उसकी कुछ जिम्मेदारी प्रदेश के बाहर के बुध्दिजीवियों की है। मैंने 3 जुलाई 2008 को अपने कॉलम में लिखा था कि ''ऐसे बुध्दिजीवी मानो किसी ऊंचे आसन पर बैठकर निर्णय ले लेते हैं जो छत्तीसगढ़ के बुध्दिजीवियों को सिर झुकाकर स्वीकार कर लेना चाहिए।'' मेरा इन मित्रों से आग्रह है कि छ.ग. को थोड़ा जान समझ लीजिए। यहां आइए, पत्रकारों से व अन्य वर्गों से खुलकर बात करिए, फिर अपनी राय बनाइए। यहां मैं राज्य सरकार से भी कहना चाहता हूं कि जब हम सबसे बात कर रहे हैं तो देश के जाने-माने बुध्दिजीवियों के साथ बात करने में कौन सी अड़चन है! अगर डॉ. रमन सिंह कुलदीप नैय्यर, अजीत भट्टाचार्य, प्रो. यशपाल, बी.जी. वर्गीज जैसे सर्वमान्य व्यक्तियों से बात कर सकें तो इससे सभी पक्षों को लाभ होगा।
24 मई 2010 को देशबंधु में प्रकाशित
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