Tuesday, 15 May 2012

छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद - 12

                                                                 रिहाई के बाद 




जितनी मुंह उतनी बातें। इंटरनेट पर एक वेबसाइट ने खबर छापी कि सुकमा के अगवा कलेक्टर एलेक्स मेनन के नक्सलियों के साथ पहले से संबंध थे और वे उनकी बैठकों में भाग लिया करते थे। यह खबर सामाजिक कार्यकर्ता नंदिनी सुंदर से चर्चा के आधार पर देने का दावा किया गया है। भाजपा-पोषित कुछेक पत्रकारों ने इस खबर को बिना किसी जांच-परख के और आगे फैलाने का काम किया। उधर एक पूर्व भाजपा विधायक व वर्तमान में बागी नेता ने कलेक्टर पर गैर-जिम्मेदाराना बर्ताव करने का आरोप लगाया और उनकी भूमिका की गहराई में जाकर जांच करने की मांग सरकार से कर डाली। जिस दिन अपहरण हुआ, उसके अगले ही दिन संघ परिवार से जुड़े एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने, जो वृध्दावस्था में सरकारी कृपा से सुख भोग रहे हैं, लिखित वक्तव्य में यहां तक कह डाला कि कलेक्टर की पत्नी विधवा हो जाए तो भी सरकार को दृढ़ नीति पर कायम रहना चाहिए।

एक बड़े बुजुर्ग सम्मानित नागरिक ने मुझसे निजी बातचीत में कहा कि ब्रह्मदेव शर्मा जैसा चाहते थे, वैसा करवा लिया। उनका सोचना था कि बी.डी. शर्मा को कभी भाजपा ने बस्तर में अपमानित किया था, उसका बदला उन्होंने ले लिया। मेरे एक सहयोगी का मानना है कि इस अपहरण के चलते जो दस-बारह दिन का समय मिल गया, उसके चलते नक्सलियों को सशस्त्र बलों को आगे बढने से रोकने और दक्षिण बस्तर में अपने कदम वापिस जमाने में सफलता मिल गई। गरज यह कि हर व्यक्ति अपने-अपने दृष्टिकोण से विश्लेषण करने में लगा हुआ है। ऐसे में एक हाथी और पांच अंधों का दृष्टांत याद आ जाना स्वाभाविक है, लेकिन जो सुगबुगाहट चल रही है उससे ऐसा लगता है कि भाजपा सरकार से कहीं ज्यादा संघ परिवार के चरमपंथी तत्व इस सारे प्रकरण से बहुत ज्यादा उद्वेलित हो गए हैं और इसी कारण नई-नई व्याख्याएं करने में जुट गए हैं।

टीवी दर्शकों ने नोट किया होगा कि डॉ. शर्मा के साथ जैसे ही श्री मेनन जंगल से बाहर निकले, पत्रकार उन पर ततैयों की तरह टूट पड़े। यह ध्यान भी किसी को नहीं था कि बारह दिन नक्सली कैद में रहने के बाद इस युवा अधिकारी की शारीरिक और मानसिक अवस्था कैसी रही होगी। अपने चैनल के लिए पांच सैकेण्ड की बाइट मानो इतनी जरूरी हो गई! दूसरी तरफ कल तक जो लोग कलेक्टर की गर्भवती पत्नी की चिंता कर रहे थे वे ही अब कलेक्टर में ऐन-केन-प्रकारेण इस तरह दोष ढूंढने लगे मानो उन्होंने स्वयं होकर अपहरण का नाटक रचा। इसी के साथ बहुत से लोगों की दिलचस्पी यह जानने में हो गई कि रिहाई के लिए क्या गुप्त समझौता किया गया। किसी ने कहा सरकार ने चालीस करोड़ रुपए दिए, किसी ने कहा साठ करोड़, किसी ने कहा तीन हार्डकोर नक्सलियों को छोड़ने का समझौता हुआ तो किसी ने दावा किया कि सीपीआई नेता मनीष कुंजाम ने परदे के पीछे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गनीमत है कि किसी ने अभी तक यह कहा नहीं कि मनीष कुंजाम दवाई देने के बहाने नोट पहुंचाने गए थे।

जहां तक जनसामान्य का सवाल है उसके लिए कलेक्टर की सुरक्षित घर वापसी एक सुखद समाचार है। शासन-प्रशासन में जिम्मेदार जगहों पर बैठे लोग राहत का अनुभव कर रहे हैं और उनकी प्रतिक्रियाएं अब तक संतुलित ही आई हैं। स्वयं मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह इस सारे प्रकरण को हार-जीत के रूप में न देखकर शासन के सामने उपस्थित एक विकट चुनौती के सुखद पटाक्षेप के रूप में ही अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं। मेरा ख्याल है कि यहीं से आगे की बात शुरू होना चाहिए। प्रदेश के एक जिले के कलेक्टर का नक्सलियों द्वारा किया गया अपहरण एक ऐसी घटना है जो एक वृहत्तर कैनवास पर समीक्षा की मांग करता है। सरकार ने जो उच्च शक्ति प्राप्त कमेटी बनाई है वह अपनी भूमिका कितने कारगर ढंग से निभा पाती है, इस पर राजनीति के अध्येताओं को ध्यान केन्द्रित करना चाहिए; लेकिन इसे छोड़कर अपहरण क्यों, कैसे हुआ और रिहाई कैसे संभव हुई, इस खोज विनोद में ध्यान लगाना मेरी राय में बचकानापन ही कहा जाएगा।

यह उचित हुआ कि एलेक्स मेनन को वापिस सुकमा जिलेमें ही पदस्थ किया गया। इससे सरकार की परिपक्व सोच का परिचय मिलता है। एलेक्स मेनन ने स्वयं ही सुकमा में ही काम करने की इच्छा व्यक्त की, इसे भी इस युवा अधिकारी के आत्मबल और कर्तव्यनिष्ठा का परिचायक मानना चाहिए। इस निर्णय से प्रशासनिक हल्कों में सही संदेश जाएगा। प्रदेश की पुलिस को तो श्री मेनन से प्रेरणा लेना ही चाहिए। मुझे याद नहीं आता कि बीते बरसों में कब किस पुलिस अफसर ने स्वेच्छा से बस्तर और वह भी सुकमा-कोंटा जैसे इलाकों में अपनी पोस्टिंग करना कबूल किया हो। श्री मेनन के अतिउत्साह को नजीब जंग जैसे अनुभवी प्रशासक ने उनकी अपरिपक्वता माना है, लेकिन इन बीहड़ इलाकों में क्या कोई भी हर समय अंगरक्षकों से घिरा रहकर कोई काम कर सकता है? क्या हम नहीं देख रहे कि प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक सबके सुरक्षा घेरे दिन पर दिन पहले से ज्यादा कड़े होते जा रहे हैं। लेकिन फिर इसका परिणाम क्या है? यही न कि हमारे जननेता जनता से निरंतर कटते जा रहे हैं। डॉ. रमनसिंह ताड़मेटला अकेले जाकर वार्ता करने की इच्छा जाहिर करते हैं, लेकिन उनसे तो रायपुर में ही जनता का मिल पाना मुश्किल है, कौन नहीं जानता। बहरहाल इस समय सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि अब आगे क्या होता है।

यह देखना कठिन नहीं है कि दण्डकारण्य में स्वाधीन, लोकतांत्रिक, भारत गणराज्य का इतिहास एक नई धारा में लिखा जा रहा है। इसे चाहे तो प्रति-इतिहास या काउंटर-हिस्ट्री की संज्ञा दे सकते हैं या फिर प्रात्याख्यान या काउंटर-नेरेटिव की। दण्डकारण्य से मेरा आशय यहां सिर्फ बस्तर से नहीं है, उसकी भौगोलिक सीमा का विस्तार आज की सामाजिक, राजनीतिक सच्चाई के समानुपात में करने से बात जमेगी। इस इतिहास के कुछ पुराने अध्याय हम पढ़ चुके हैं। एक नया अध्याय अभी समाप्त हुआ है। इसमें आगे कितने अध्याय जुड़ेंगे, क्या कोई सही-सही भविष्यवाणी कर सकता है? मेरे सहयोगी शशांक शर्मा ने इसे मध्यांतर की संज्ञा दी है, तो क्या यह माना जाए कि इतिहास रंगमंच पर घटित हो रहा है? अगर ऐसा है तो इसे परिभाषित कैसे करें? क्या यह ''थिएटर ऑफ एब्सर्ड'' याने विद्रूप का रंगमंच है या फिर  ''वेटिंग फॉर गोडो'' याने गोडो की वापसी का मंचन? क्या हम किसी ग्रीक ट्रेजडी को देख रहे हैं या शेक्सपीयर को  या फिर महाभारत फिर घटित हो रहा है? नहीं, यह नाटक नहीं है। कठोर वास्तविकता है। जिन्हें जनता ने अपने लिए निर्णय लेने का हक दिया है, यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे देखें कि इस आख्यान में और ज्यादा अध्याय न जुड़ें; अब आगे न कोई आदिवासी मारा जाए, न कोई सिपाही और न कोई झूठे सपने पाले युवा।

मैं अंत में एलेक्स मेनन और उनकी पत्नी आशा मेनन से कहना चाहूंगा कि उन्हें यथाशीघ्र अपने शहीद अंगरक्षकों किसुन कुजूर व अमजद खान के घर जाकर उनके परिजनों से मिलना चाहिए। 




 10 मई 2012 को देशबंधु में प्रकाशित 

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