एक पत्रकार से यह सहज सामान्य अपेक्षा होती है कि उसके लिखे में तथ्यों के प्रति पूरी सतर्कता बरती जाएगी।
यह इसलिए कि आज लिखा हुआ आगे चलकर रिकार्ड बनता है तथा यदि तथ्यों में कहीं त्रुटि हुई तो उससे अर्थ का अनर्थ होने के अलावा पाठकों के साथ भी अन्याय होगा। ऐसे में कोई पत्रकार अपने दैनंदिन कार्य से अवकाश ले शोध की ओर मुड़े; उस शोधकार्य के पुस्तक रूप में प्रकाशन का लक्ष्य सामने हो; पत्रकारिता का एक प्रतिष्ठित संस्थान उस कार्य को प्रायोजित करे तथा एक शासकीय संस्थान ऐसी पुस्तक के प्रकाशन का माध्यम बने तो स्वाभाविक रूप से यह अपेक्षा कई गुना बढ़ जाती है; लेकिन जब प्रकाशित शोधकार्य में तथ्यों की अनदेखी हो अथवा तथ्य तोड़-मरोड़कर पेश किए गए हों एवं अन्य तरह से भी लापरवाही हो तो इससे न सिर्फ निराशा, बल्कि क्षोभ भी उपजता है।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ने पाँच वर्ष पूर्व संकल्प किया कि ''स्वतंत्रता के बाद से भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता के विस्तार और प्रभाव, उसकी प्रवृत्तियों और उपलब्धियों, उसकी कमियों और कमजोरियों का विश्वसनीय विश्लेषण, प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में लिपिबध्द किया जाए।'' इसके अंतर्गत छत्तीसगढ़ में हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास को भी लिपिबध्द करने का कार्य हाथ में लिया गया। इस प्रकल्प को विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति अच्युतानंद मिश्र ने ''इतिहास संरक्षण का विनम्र प्रयास'' की संज्ञा दी। उनकी सेवानिवृत्त के बाद वर्तमान कुलपति बृजकिशोर कुठियाला के मार्गदर्शन में काम आगे बढ़ा। सप्रे संग्रहालय के माध्यम से अपने शोधपरक कार्य के लिए सुपरिचित पत्रकार विजय दत्त श्रीधर परियोजना के निर्देशक बने। छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी के अनुरोध पर इस परियोजना के तहत तैयार ग्रंथमाला के प्रकाशन का दायित्व वि.वि. ने उसे सौंपा। छत्तीसगढ़ के इतिहास का लेखन रायपुर के युवा पत्रकार विभाष कुमार झा ने किया, जिन्हें इसके पूर्व भी शोधपरक कार्यों के लिए अन्यान्य संस्थाओं से फैलोशिप प्राप्त हो चुकी हैं।
इस शोधकार्य के आधार पर ''हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास: छत्तीसगढ़'' का पुस्तक रूप में प्रकाशन सन् 2011 में याने कुछ दिन पहले ही किया गया, लेकिन 124 पृष्ठ के इस शोध प्रबंध ने आद्योपांत निराश ही किया है। एक शोधमूलक कार्य में इतनी लापरवाही बरती जा सकती है, वह भी पत्रकारिता से जुड़े चार-चार अनुभवी व्यक्तियों के रहते हुए, यह कल्पना से परे था। अच्युतानंद मिश्र ने अपनी प्रस्तावना में लिखा- ''श्री विभाष कुमार झा ने छत्तीसगढ़ की हिन्दी पत्रकारिता का गहन शोध-अध्ययन कर परिश्रमपूर्वक पाण्डुलिपि तैयार की। वे प्रशंसा के हकदार हैं। श्री शैलेन्द्र खंडेलवाल शोध सहायक थे।'' इसी तरह ग्रंथ अकादमी के संचालक रमेश नैय्यर ने अपने प्रकाशकीय वक्तव्य में कहा- ''इस ग्रंथमाला की मीडिया के साथ ही राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र और इतिहास सहित अन्य विषयों के विद्यार्थियों के लिए विशिष्ट उपादेयता है।'' लेकिन पुस्तक पढ़कर ऐसा लगता है कि ये दोनों वक्तव्य महज औपचारिकता निभाने के लिए दिए गए।
मैं अपनी बात आवरण पृष्ठ से ही शुरु करूं। इसमें विभिन्न समाचारपत्रों के शीर्ष लेकर कोलाज बनाया गया है। इसमें न तो छत्तीसगढ क़ा प्रथम पत्र ''छत्तीसगढ़ मित्र'' है, न ही प्रथम हिन्दी दैनिक ''महाकौशल'' और न 'उत्थान' अथवा 'अग्रदूत' जैसे महत्वपूर्ण पत्र। ''देशबन्धु'' का मास्टहैड शायद जानबूझकर ही छोड़ा गया है; लेकिन जो समाचारपत्र छत्तीसगढ़ से प्रकाशित ही नहीं होते जैसे 'अमर उजाला', 'हिन्दुस्तान' या 'दैनिक जागरण'- उनके शीर्ष क्यों दिए गए, इसका कोई तर्कपूर्ण उत्तर खोजना मुश्किल है। इसके बाद हम विषयवस्तु पर आते हैं। मेरा ध्यान अनायास जिन बिंदुओं पर गया, उन्हें उध्दृत करते हुए अपनी टिप्पणी मैंने नीचे दी है।
1. ''आजादी के पूर्व इस क्षेत्र में पत्रकारिता के अग्रणी हस्ताक्षरों में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, पं. विष्णुदत्त मिश्र तरंगी, पं. स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी, मधुकर खेर, गोविन्दलाल वोरा, गुरुदेव काश्यप तथा रमेश नैयर जैसे ख्यातिलब्ध नाम शामिल हैं।'' (पृष्ठ-13)
टिप्पणी-यह लिखना ही हास्यास्पद है कि गोविन्दलाल वोरा, गुरुदेव काश्यप तथा रमेश नैय्यर स्वाधीनता पूर्व के पत्रकार हैं।
2. ''महाकौशल पत्र ने कभी भी सत्तापरक होने की भूमिका अदा नहीं की।'' (पृष्ठ- 22)
-'महाकौशल' सत्तापक्ष का अखबार था, यह सभी जानते हैं।
3. ''सन् 1952 से सन् 1960 के बीच छत्तीसगढ़ में नागपुर और कोलकाता से समाचारपत्र आया करते थे जबकि दूसरे दैनिक यहां सन् 1960 में आए। तब स्वाभाविक रूप से 'महाकोशल' को प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा।'' (पृष्ठ - 23)
-रायपुर से 'नवभारत' एवं 'नई दुनिया' (वर्तमान में 'देशबन्धु') का प्रकाशन 1959 में प्रारंभ हुआ, न कि 1960 में।
4. ''प्रखर पत्रकार श्री मायाराम सुरजन के संपादन में दैनिक 'नई दुनिया' का प्रकाशन 19 अप्रैल 1959 को रायपुर से हुआ।'' (पृष्ठ- 34)
-'नई दुनिया' के प्रकाशन की सही तारीख 17 अप्रैल है।
5. ''उन दिनों बस्तर में बांग्लादेश से विस्थापित बंगालियों को भी छत्तीसगढ़ के कुछ स्थानों पर लाकर शिविरों में बसाया गया था।'' (पृष्ठ- 41)
-साठ के दशक में विस्थापन पूर्वी पाकिस्तान से हुआ था; तब बंगलादेश बना ही नहीं था।
6. ''इस दशक में महाकोशल ने साहित्य और अन्य विशेषांक तथा फीचर अंकों में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, पुरातत्त्ववेत्ता पं. लोचनप्रसाद पांडेय, छायावादी कवि पं. मुकुटधर पांडेय, पंकज शर्मा, सरजूप्रसाद दुबे सहित अन्य लेखकों को प्रोत्साहित और स्थापित किया।'' (पृष्ठ- 44-45)
-''महाकौशल'' ने उपरोक्त मूर्धन्य साहित्यकारों को स्थापित व प्रोत्साहित किया, यह विचित्र कथन है। इसमें पंकज शर्मा का नाम भी लिया गया है जो लेखक नहीं, विशुध्द पत्रकार ही थे।
7. ''मोनोटाइप के कारण महाकोशल के रोज नए टाइपसेट बनते थे। इससे छपाई की गति प्रभावित होती थी। लेकिन तब अधिकांश समाचारपत्रों के पास यही तकनीक उपलब्ध थी।'' (पृष्ठ- 51)
-मोनोटाइप मशीन रायपुर में सबसे पहले 1970 में 'देशबन्धु' में आई थी और उसके बाद 'नवभारत' में। जिस कालखण्ड का जिक्र यहां किया गया है उस कालखण्ड में ये मशीनें नहीं थीं। यही नहीं, मोनोटाइप से कंपोजिंग की रफ्तार बढ़ गई थी, जबकि यहाँ एकदम विपरीत संकेत दिया गया है।
8. ''देशबन्धु के आरंभ और स्थापित होने तक सुरजन के सार्वजनिक जीवन के अनेक प्रसंग देशबन्धु में 'धूप छांव के दिन' साप्ताहिक स्तंभ में छपते थे।'' (पृष्ठ- 55)
-'धूप छांव के दिन' का प्रकाशन अस्सी के दशक में हुआ न कि देशबन्धु के प्रारंभिक दिनों में।
लेखक ने पृष्ठ 25 पर 'मुक्ति' पत्र का जिक्र किया है, लेकिन एक बड़े तथ्य की ओर उनका ध्यान नहीं गया कि यह पत्रिका छत्तीसगढ़ में दलित चेतना के प्रसार हेतु प्रारंभ हुई तथा मूलचंद जांगड़े ने इसे प्रारंभ किया था। इसी तरह पृष्ठ-37 पर साप्ताहिक 'स्नातक' का जिक्र करते हुए इस तथ्य का उल्लेख नहीं किया गया कि यह विश्वविद्यालयीन छात्रों का पत्र था और इस तरह राष्ट्रीय स्तर पर एक अभिनव प्रयोग था।
पृष्ठ-65-66 पर पत्रकार सनत चतुर्वेदी के हवाले से बस्तर की पाइन परियोजना का जिक्र किया गया है। यह प्रसंग 1971-72 का है न कि अस्सी के दशक का, जैसा कि पुस्तक में लिखा गया है। ऐसी ही लापरवाही अगले पृष्ठों पर है। पृष्ठ 67 पर उल्लेख है कि गोविन्दलाल वोरा ने 1984 में 'अमृत संदेश' प्रारंभ किया और उसके एक दो वर्ष बाद उनके भाई मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री बने। शोधकर्ता थोड़ी सी मेहनत करते तो वे 1985 की सही-सही तारीख लिख सकते थे। और आगे देखें। चन्दूलाल चंद्राकर ने छत्तीसगढ़ में कभी पत्रकारिता नहीं की, लेकिन पृष्ठ 67 में इस रूप में इनका उल्लेख किया गया।
पुस्तक को पच्चीस अध्यायों में बांटा गया है। हरेक अध्याय में उपशीर्षक भी दिए गए हैं, किंतु अध्यायों के शीर्षक और उसके अंतर्गत प्रकाशित सामग्री में तालमेल की कमी खटकती है। मसलन, बड़े ''अखबारों का आगाज '' शीर्षक अध्याय में 'ज्वालामुखी', 'रायपुर न्यूज', 'विचार और समाचार', 'रथचक्र' इत्यादि पत्रों का जिक्र किया गया है: ये ऐसे पत्र हैं जिनका जीवन संक्षिप्त रहा तथा इन्हें बड़ा अखबार तो किसी भी दृष्टि से नहीं कहा जा सकता। इसी तरह पृष्ठ 31 पर एक उपशीर्षक है- ''चर्चित घटनाएं''। इसमें गास मेमोरियल कांड का जिक्र है, लेकिन बस्तर गोलीकांड में राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव की मृत्यु वाली महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख ''पत्रकारिता का तकनीकी शैशवकाल'' शीर्षक अध्याय के अंतर्गत दिया गया है। साहित्यिक पत्रकारिता नामक अध्याय में सिर्फ एक या दो साहित्यिक पत्रिकाओं का जिक्र है।
शोधकर्ता ने एक शालेय पत्रिका 'कला सौरभ' के प्रकाशन का उल्लेख किया है। छत्तीसगढ़ के विभिन्न विद्यालयों से समय-समय पर सालाना पत्रिका प्रकाशित होती हैं। इनका विस्तृत विवरण देकर पूरा अध्याय लिखा जाता तब तो उचित था, लेकिन सिर्फ एक पत्रिका का बिना किसी विवरण के उल्लेख करना समझ नहीं आया। इसी क्रम में यदि थोड़ी मेहनत की जाती तो प्रदेश के औद्योगिक प्रतिष्ठानों द्वारा नियमित रूप से प्रकाशित गृहपत्रिकाओं के बारे में जानकारी दी जा सकती थी। आखिर उन्हें क्यों छोड़ा जाए! शोधकर्ता ने हाल में प्रारंभ हुए अखबारों का भी जिक्र किया है, लेकिन आश्चर्य की बात है कि ''हाईवे चैनल'' सहित कुछ अन्य समाचारपत्रों का जिक्र करना वे भूल गए।
इस पुस्तक में गंभीर रूप से खटकने वाली दो और बातें हैं। एक तो शोधकर्ता ने जिन पत्रकारों से साक्षात्कार लिए हैं उन्हें यथावत छाप दिया है: उनकी प्रामाणिकता का परीक्षण करने की आवश्यकता लेखक ने महसूस नहीं की। दूसरे यह भी लगता है कि पूर्व में किसी अन्य फैलोशिप के अंतर्गत संकलित की गई सामग्री को यथावत इसमें जगह दे दी गई है। जो पत्रकार दिवंगत हो चुके हैं उनका नामोल्लेख भूतकाल की बजाय वर्तमान काल में किया गया है। इस तरह की और भी अनेक त्रुटियां हैं जिनके कारण छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी का यह प्रकाशन व्यर्थ हो गया है। पत्रकार और पत्रकारिता के छात्र अगर इसे पढ़ेंगे तो अपना नुकसान ही करेंगे।
17 फरवरी 2011 को देशबंधु में प्रकाशित
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