Monday, 21 May 2012

प्रधानमंत्री की प्रेस वार्ता



डॉ. मनमोहन सिंह ने 25 मई को बाकायदा पत्रकार वार्ता आयोजित की। छह साल के दौरान प्रधानमंत्री की यह दूसरी तथा चार वर्ष के लंबे अंतराल के बाद पहली पत्रवार्ता थी। अगर यह रिकार्ड भविष्य का सूचक है तो मान लेना चाहिए कि अब अगले चार सालों के दौरान पत्रकारों को प्रधानमंत्री से इस तरह मुखातिब होने का मौका नहीं मिलेगा। अगर प्रधानमंत्री की कृपा हो गई तो शायद वे दूसरा कार्यकाल पूरा करने के पहले एकाध मौका भले ही दे दें। वे पत्रकार जिन्होंने बीते समय को देखा है, प्रधानमंत्री की प्रेस से इस तरह दूरी बनाए रखने पर स्वाभाविक रूप से खिन्न हैं। प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू लगभग हर माह प्रेस से मिला करते थे। शास्त्री जी का कार्यकाल छोटा रहा, लेकिन प्रेस के साथ संवाद उनका नियमित था। यह मेरा अपना देखा हुआ है कि इंदिरा गांधी बहुत सहजता के साथ पत्रकारों से मिला करती थीं। यद्यपि आपातकाल के दौरान प्रेस के साथ उनकी दूरी बन गई थी। जहां तक मुझे ध्यान आता है पी.वी. नरसिंहराव के समय प्रधानमंत्री का प्रेस के साथ प्रत्यक्ष संवाद लगभग समाप्त हो गया था। आज भी वही स्थिति चल रही है।

डॉ. मनमोहन सिंह ने यह पत्रवार्ता संबोधित करने का निर्णय क्यों लिया इसे लेकर अनुमान लगाए जा रहे हैं। यह ज्ञातव्य है कि यूपीए-2 का एक साल पूरे होने पर सारे टीवी चैनलों पर सिर्फ प्रणव मुखर्जी ही नजर आ रहे थे। वे ही पिछले एक साल की उपलब्धियों पर मीडिया को जानकारी दे रहे थे। यह बात कुछ अटपटी थी कि न तो यूपीए की अध्यक्ष इस मौके पर सामने आईं और न ही प्रधानमंत्री। जैसा कि हम जानते हैं आजकल टीवी अपनी तकनीकी महारत के कारण सार्वजनिक विमर्श का एजेंडा बहुत बड़ी हद तक खुद ही तय कर देता है। अत: यह अनुमान ही लगाया जा सकता है कि इसकी प्रतिक्रिया प्रधानमंत्री कार्यालय में हुई हो। जो भी हो देश का प्रधानमंत्री पत्रवार्ता के माध्यम से देशवासियों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए सामने आए तो यह स्वागतयोग्य है।

इस पत्रवार्ता की विस्तृत रिपोर्ट तो अगले दिन सर्वत्र प्रकाशित होना ही थी, वह हुई भी, लेकिन इसे लेकर पत्रकारों और प्रबुध्द समाज के बीच जो उत्तेजना पैदा होना चाहिए थी वह नहीं हुई। इसके विपरीत एक ठंडापन व्याप्त रहा। इसकी एक वजह तो यही थी कि प्रधानमंत्री ने प्रश्नों के उत्तर खुलकर नहीं दिए। वे किसी बैडमिंटन चैम्पियन की तरह अपने पाले में आई चिड़िया को एक पल भी बिना गँवाए  नेट के उस तरफ रिटर्न करते रहे। आप चाहें तो बैडमिंटन की जगह किसी और खेल का नाम ले लीजिए किंतु हम सामान्य तौर पर एक राजनेता से ऐसे उत्तरों की अपेक्षा नहीं रखते। दरअसल मुझे तो पत्रवार्ता के टेलीप्रसारण के दौरान बार-बार ''यस मिनिस्टर'' धारावाहिक के उस नौकरशाह सचिव का ख्याल आ रहा था जो बड़ी सफाई से अपनी मंत्री की बातों को काटकर बातचीत को किसी और दिशा की ओर मोड़ देता था। दूसरे शब्दों में एक चतुर अफसर जिस तरह से अपने-आपको किसी भी निर्णय की जिम्मेदारी से बचा ले जाता है कुछ वैसा ही प्रभाव प्रधानमंत्री दे रहे थे।

दूसरी तरफ उपस्थित पत्रकारों ने भी अपनी ओर से इस नायाब अवसर को गंवाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। उस सुबह लगभग चार सौ देशी-विदेशी पत्रकार विज्ञान भवन के सभाकक्ष में मौजूद रहे होंगे। जिन्होंने सवाल पूछे उनकी संख्या भी शायद सौ के आसपास थी, लेकिन पैंसठ-सत्तर मिनट में मेरी दृष्टि में कुल तीन पत्रकारों ने मुद्दे के सवाल उठाए- हिन्दी के उर्मिलेश, अंग्रेजी की मानिनी चटर्जी तथा उर्दू के एक संपादक जिनका नाम फिलहाल याद नहीं आ रहा है। उपस्थित विदेशी पत्रकारों में से भी एक पत्रकार को सवाल पूछने का मौका मिला; वह संभवत: जापान का था। उसकी बात सवाल कम, शिकायत ज्यादा थी कि सभाकक्ष तक पहुंचने में उसे सिक्योरिटी के कारण कितनी परेशानी भुगतनी पड़ी। सुश्री चटर्जी ने यूपीए के घटक दलों द्वारा किए जा रहे राजनैतिक भयादोहन के संदर्भ में मौजूँ सवाल उठाया कि क्या आज आपको वामदलों का साथ छोड़ देना अखर नहीं रहा है। इस पर प्रधानमंत्री खुलकर अपना मंतव्य सामने रख सकते थे, लेकिन इसे उन्होंने एक अंग्रेजी मुहावरे से उड़ा दिया।

उर्दू के पत्रकार का सवाल एक ठोस समस्या को लेकर था कि साठ वर्ष पूर्व देश छोड़कर पाकिस्तान चले गए लोगों के जो मकान ''दुश्मन की सम्पत्ति'' घोषित हो चुके हैं; उनमें बसे लोगों को बेदखल किया जा रहा है, जिनमें से अधिकतर अल्पसंख्यक हैं, इस बारे में सरकार क्या कर रही है। प्रधानमंत्री का उत्तर यहाँ तक तो ठीक था कि उनके संज्ञान में यह बात नहीं है, लेकिन इसके आगे उन्हें जो कहना चाहिए था वह उन्होंने नहीं कहा। बजाय इसके कि वे प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा इसकी पड़ताल करने का आश्वासन देते, उन्होंने उस पत्रकार पर ही जिम्मेदारी डाल दी कि वह उनके कार्यालय तक सारी जानकारी पहुंचा दे। यह उत्तर किसी कदर संवेदनहीनता का परिचायक था एवं मुझे समझ में नहीं आया। बहरहाल इन कुछेक प्रश्नों के अलावा बाकी प्रश्नों से यही लग रहा था कि मीडिया ने अपनी ओर से कोई तैयारी ही नहीं की थी। यहां हम देख रहे हैं कि भारतीय मीडिया से दिनोंदिन गंभीरता गायब होते जा रही है। यह पत्रकार वार्ता उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। राहुल गांधी कब मंत्री बनेंगे अथवा आप राहुल गांधी के लिए कब कुर्सी छोडेंग़े जैसी बातें गपशप के लिए तो ठीक है, लेकिन इन्हें एक गंभीर पत्रकार वार्ता में पूछे जाने का कोई औचित्य नहीं था। यह स्वाभाविक था कि प्रधानमंत्री ऐसे व्यर्थ के प्रश्नों को हवा में उड़ा देते जो उन्होंने किया। अधिकतर सवाल उसी श्रेणी के थे।

प्रधानमंत्री अगर चाहते तो इस अवसर का उपयोग अपनी सरकार की नीतियों के बारे में जनता को शिक्षित करने के लिए कर सकते हैं। यह शायद उचित होता कि वे दस प्रन्द्रह मिनट का एक प्रारंभिक वक्तव्य दे देते जिससे वहां उपस्थित जानकार पत्रकारों को बेहतर सवाल पूछने का आधार मिल जाता। वैसा नहीं हो पाया। प्रधानमंत्री के प्रेस सलाहकार हरीश खरे इस पत्रवार्ता का संचालन कर रहे थे। उनकी अपनी पहचान एक गंभीर पत्रकार की है, लेकिन इस प्रसंग के दौरान वे टेबल के उस तरफ थे। यह उनके लिए पहला अनुभव था और संभवत: दिल्ली के पत्रजगत से उनका कोई नियमित संपर्क नहीं है। इस पत्रवार्ता का संचालन अगर पत्र सूचना कार्यालय के प्रमुख द्वारा किया जाता तो शायद स्थिति कुछ बेहतर बन सकती थी। फिलहाल हम प्रधानमंत्री जी तक यह अनुरोध पहुंचाना चाहेंगे कि वे नेहरू जी की तरह  भले हर माह पत्रवार्ता न लें लेकिन तीन माह में एक बार तो उन्हें प्रेस से मिलना ही चाहिए। इसके अलावा जब बड़े नीतिगत फैसले लेने का अवसर हो तब भी उन्हें प्रेस से वार्तालाप की पहल करना चाहिए। ऐसा करना शायद काँग्रेस पार्टी के हित में भी होता।


3 जून 2010 को देशबंधु में प्रकाशित 

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