Monday 21 May 2012

मीडिया की नैतिकता


यह जानी-मानी बात है कि यदि आप अपने खेत या बगीचे में उग आई किसी अवांछित वनस्पति से निजात पाना चाहते हैं तो उसे जड़ मूल से उखाड़ना होता है। यदि गइराई तक जाकर उपचार नहीं किया गया तो खरपतवार दुबारा उग आती है। इसे अगर सामाजिक संदर्भों में देखें तो समाज में घर कर गई किसी बुराई को उसकी समग्रता में देखकर ही उसे खत्म करने की योजना बनाई जा सकती है। किसी पेड़ की कुछ टहनियां या कुछ शाखाएं काट देने से स्थायी हल नहीं निकलता। लेकिन हम अनेक कारणों से अक्सर सतह पर ही रह जाते हैं और जड़ तक नहीं पहुंच पाते। अंग्रेजी में एक कहावत है जिसका आशय यह है कि कुछ पेड़ों को जंगल नहीं समझ लेना चाहिए। इधर कुछ हफ्तों से भारतीय पत्रकारिता में व्याप्त एक व्याधि को समाप्त करने के लिए जो आवाजें उठ रही हैं उसमें यह सतही अंदाज नजर आ रहा है।

भारतीय पत्रकारिता में आम चुनाव के समय मीडिया को खरीदने तथा नकद पैसे देकर विज्ञापन के बदले खबरें छपवाने के आरोप हाल के समय में लग रहे हैं। स्वर्गीय प्रभाष जोशी और पी.साईनाथ ने मिलकर इसके खिलाफ एक अभियान की शुरुआत भी की। श्री जोशी से प्रभावित कुछेक पत्रकारों ने इस पर अपनी टिप्पणियां लिखीं;यहां तक कि पुस्तिकाएं भी प्रकाशित कीं। महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों को लेकर पी.साईनाथ का एक लेख भी कुछ दिन पहले प्रकाशित हुआ था। एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की सभा में भी इस प्रवृत्ति को लेकर काफी चिंता व्यक्त की गई। लेकिन इसका कोई सुपरिणाम निकलेगा मैं इस बारे में कतई भी आश्वस्त नहीं हूं। मेरा मानना है कि ये सारे प्रयत्न सिर्फ बाहरी तस्वीर देखने तक सीमित हैं। इसमें अभियान चलाने वालों को भले ही कुछ देर के लिए वाहवाही मिल जाए लेकिन अंत में निराशा ही हाथ लगेगी।

अगर गहराई में जाकर उपचार करना है तो सबसे पहले यही पूछना होगा कि ऐसी स्थिति क्यों कर निर्मित हुई। एक समय राजनीतिक दल और प्रत्याशी मीडिया में अपने विज्ञापन खुलकर दे सकते थे और उसे चुनावी खर्च में नहीं जोड़ा जाता था। यह सबको पता है कि चुनावों को स्वच्छ बनाने के लिए जो भी नए-नए नियम कायदे बने हैं वे सब बेअसर सिध्द हो रहे हैं। क्योंकि इनमें व्यावहारिक पक्ष का ध्यान कहीं भी नहीं रखा गया है। एक तरफ करोड़ों की संपत्ति के मालिक चुनाव लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ चुनाव खर्च की अधिकतम सीमा तय करने में वास्तविकता को झुठलाया जा रहा है। जब एक उम्मीदवार बैनर,पोस्टरकार्यालय का संचालनकार्यकर्ताओं के चाय-नाश्ता आदि मदों पर खर्च करता है तो प्रचार के प्रभावी साधन मीडिया को भी वह विज्ञापन देयह एक स्वाभाविक अपेक्षा होती है।

यह सर्वविदित है कि आज का मीडिया गहन पूंजी निवेश मांगता है। चाहे बहुरंगी छपाई वाली मशीन की आवश्यकता हो या चैनल चलाने की या पत्रकारों के वेतन की। मीडिया का विस्तार भी बहुत तेजी के साथ हुआ है। पहले जहां दो अखबार होते थे अब वहां बीस अखबार और बीस चैनल संचालित हो रहे हैं। इन्हें स्वाभाविक रूप से विज्ञापनों की आवश्यकता होती है। आम चुनाव के समय करीब-करीब दो माह तक आचार संहिता लागू होती है और शासकीय और अर्ध्दशासकीय विज्ञापनों का प्रवाह पूरी तरह सूख जाता है। ऐसे में चुनावी विज्ञापनों से भरपाई करने की कोशिश मीडिया करता है। उस पर भी जब रोक लगने लगी तो मीडिया ने नंबर दो में पैसे लेकर खबरें छापने की रीत चला दी। अगर एडीटर्स गिल्ड  व पीसाईनाथ जैसे पत्रकार इस नैतिक गिरावट से इतने चिंतित हैं तो उन्हें सबसे पहले चुनाव आचार संहिता में संशोधन करने व प्रत्यक्ष विज्ञापन की अनुमति देने की वकालत करना चाहिए। सम्पन्न घरानों द्वारा संचालित एकाध दर्जन अखबारों को सामने रखकर पूरे देश की पत्रकारिता के बारे में राय कायम कर देना उनके साथ अन्याय है। अगर राजनीतिक दलों व प्रत्याशियों को विज्ञापन देने की छूट मिले तो इससे पारदर्शिता कायम होगी। अखबार और चैनल भी अपने निजी राजनीतिक विवेक के आधार पर पार्टी या उम्मीदवार विशेष का समर्थन व विरोध कर सकेंगे तथा इससे कुल मिलाकर स्वस्थ वातावरण का निर्माण होगा।

मैं समझता हूं कि यह चर्चा सिर्फ चुनावी विज्ञापनों में हो रहे दो नंबर के सौदे तक सीमित नहीं रहना चाहिए। जो लोग पत्रकारिता में नैतिक मूल्यों की स्थापना करना चाहते हैं उन्हें इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है कि अन्य अवसरों पर भी मीडिया किस तरह से प्रलोभन व प्रवंचना का शिकार होता है। वैश्वीकरण के इस दौर में भारतीय मीडिया में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश होना प्रारंभ हुआ है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापनों के माध्यम से परोक्ष पूंजी निवेश भी हो रहा है। इस विदेशी पूंजी निवेश ने भारतीय मीडिया को विश्व बाजार के हितों का पैरोकार बना दिया है। क्या इस कड़वी सच्चाई से इंकार किया जा सकता हैभारत के अखबार और चैनल आए दिन बैंकबीमाशिक्षास्वास्थ्य आदि तमाम क्षेत्रों में जिस पुरजोर तरीके से विदेशी पूंजी निवेश की वकालत कर रहे हैं क्या वह दो नंबर का खेल नहीं है?

इसी तरह कहने को तो हमारे यहां सिगरेट व शराब के विज्ञापनों पर रोक है। लेकिन ऐसा कौन सा बड़ा अखबार है जिसमें पांच सितारा होटलों और महंगी शराबों का विज्ञापन प्रच्छन्न तरीके से यानी समाचार के नाम पर न होता हो। मुझे यह देखकर आश्चर्य और दु:ख होता है कि हमारे बड़े-बड़े नामी संपादक भी अपने नियमित स्तंभों में इस या उस ब्राण्ड की शराब के जायके की बारीकियां समझाते नजर आते हैं। और फिर यह पेज थ्री का गोरखधंधा क्या हैउसमें आप जिनके बारे में लिखते हैं,जिनकी तस्वीरें छापते हैंजिनकी तारीफ करती आपकी कलम नहीं थकतींयह सब विज्ञापन नहीं तो क्या हैहमारे अभियान चलाने वाले पत्रकारों का ध्यान अगर इस हकीकत पर जाए तो शायद पत्रकारिता का कुछ भला हो।

14 जनवरी 2010 को देशबंधु में प्रकाशित 

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