कमजोरी कहाँ है?
हम छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह के इस बयान से सहमत हैं कि ''नक्सलियों से इस समय बातचीत का कोई औचित्य नहीं है और उनके खिलाफ राष्ट्रव्यापी कड़ी कार्रवाई की जरूरत है।'' नक्सली हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही है। गुरुवार की रात झाड़ग्राम की ट्रेन दुर्घटना ताजा उदाहरण के रूप में सामने है, जिसे षड़यंत्र कहना ही मुनासिब होगा। सामान्य स्थिति में सरकार को उन नागरिक समूहों के साथ वार्ता के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए, जिन्हें अपने अधिकारों के हनन की शिकायत हो अथवा जो किसी भी तरह से जोर-जुल्म के शिकार हुए हों। सरकार को उनके ऐसे नुमाइंदों से भी बात करने में संकोच नहीं होना चाहिए जो लोकतांत्रिक ढंग से चर्चा करने में विश्वास रखते हों। जाहिर है कि आज के नक्सली अथवा माओवादी इन दोनों श्रेणियों के बाहर हैं। यह हमने बीते बरसों में देखा है कि सरकार ने यदि अलगवावादी सोच रखने वाले समूहों के साथ वार्ता के दरवाजे खोले हैं तो उसने चंबल घाटी के उन दस्युओं से भी सीधे या किसी मध्यस्थ के जरिए बातचीत करने से गुरेज नहीं किया है जो आर्थिक-सामाजिक कारणों से हिंसा के पथ पर चल पड़े थे। लेकिन नक्सली जो कुछ कर रहे हैं, उसका औचित्य सिध्द करना असंभव है। मैंने जैसा कि पहिले भी कहा है कि वे भाड़े के सैनिक हैं। उनके सूत्रधार कहीं और हैं। वे एक के बाद एक ऐसे सामूहिक हत्याकांड इसीलिए कर रहे हैं कि देश में दहशत फैले, जनतांत्रिक प्रक्रिया पर प्रश्नचिन्ह लगे, संवाद की गुंजाइश खत्म हो और देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों के दीर्घसूत्रीय मंसूबों के लिए माहौल बन सके। वे अपने आपको ''माओवादी'' इसलिए कहते हैं ताकि जनवादी राजनीति को ही कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया जाए।
बहरहाल, हम डॉ. रमनसिंह के बयान की तरफ पुन: लौटते हैं। इस बिन्दु पर अधिकांश जन सहमत नजर आते हैं कि इस समय बातचीत नहीं हो सकती, किंतु यदि कड़ी कार्रवाई होना है तो वह कैसे तथा किस रूप में होगी, इसे लेकर अधिकतर भ्रम की स्थिति ही है। कुछ दिन पूर्व दिल्ली प्रवास के दौरान छ.ग. के मुख्यमंत्री ने मांग की थी कि सुरक्षा विशेषज्ञ ही इस बारे में रणनीति बनाएं, लेकिन बात आगे बढ़ी हो, ऐसा नहीं लगता। कुछेक ''विद्वानों'' ने आंध्रप्रदेश का उदाहरण देते हुए सुझाव दिया है कि दिवंगत मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी की नीति छत्तीसगढ़ में अपनाई जाए। टाइम्स ऑफ इंडिया के वरिष्ठ पत्रकार स्वामीनाथन एस. अय्यर का तो कहना है कि बस्तर का प्रशासन ही आंध्रप्रदेश को सौंप दिया जाता तो बेहतर होता; और चूंकि व्यवहारिक कारणों से ऐसा संभव नहीं है इसलिए छ.ग. सरकार को स्वयं होकर आंध्र सरकार के अधिकारियों की सेवाएं ले लेना चाहिए। ऐसे सुझावों पर सिर ही धुना जा सकता है, किंतु मुद्दे की बात यही है कि नक्सल प्रभावित हर प्रदेश को अपनी विशिष्ट परिस्थितियों को ध्यान में रखकर रणनीति बनाना चाहिए तथा इसे दो स्तरों पर तय करना होगा: सुरक्षाबल की भूमिका तथा सामान्य प्रशासन की भूमिका।
पहिले सुरक्षा बल और खासकर पुलिस की भूमिका पर विचार करें। यह छत्तीगसढ़ का दुर्भाग्य है कि अन्य अनेक प्रांतों की भांति यहां भी पुलिस जनसामान्य का विश्वास जीतने में असफल ही सिध्द हुई है। एक नए राज्य में अवसर था कि पुलिस का जनहितैषी चरित्र विकसित किया जाता, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। पुलिस मुख्यालय में शीर्ष पदों को लेकर जो खींचतान पहिले दिन से शुरू हुई, वह लगातार बढ़ते गई। जिन अधिकारियों को सिर्फ अपने पद और अपने रुतबे की चिंता हो, वे राजनैतिक धरातल पर समझौते करते गए तथा पुलिस बल का मनोबल बढ़ाने व उसे हर तरह से मुस्तैद रहने के लिए जो प्रयत्न किए जाने थे, वे आधे-अधूरे ढंग से ही संचालित होते रहे। पुलिस के दो महानिदेशकों को समयपूर्व इसलिए हटा दिया गया कि सत्तापुरुष उनकी जगह पर अपने प्रिय पात्रों को लाना चाहते थे। जाहिर है कि इससे कुल मिलाकर पुलिस की कार्यक्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ना था।
जब डॉ. रमन सिंह कड़ी कार्रवाई की बात करते हैं तब उन्हें इस प्रश्न का उत्तर खोजना होगा कि प्रदेश पुलिस का मनोबल इतना क्षीण क्यों है कि सिपाही व अधिकारी बस्तर जाने से कतराते हैं तथा पोस्टिंग हो जाए तो उसे रुकवाने के लिए लिए हाईकोर्ट तक जाकर स्थगन ले आते हैं। क्या ऐसा इसलिए नहीं हो रहा कि हमारी पुलिस में पदस्थापना, तबादले, पदोन्नति और पुर्ननियुक्ति के लिए कोई पारदर्शी नीति लागू नहीं है! कहने को पुलिस स्थापना बोर्ड अवश्य बन गया है, लेकिन क्या उसमें वांछित ईमानदारी का परिचय दिया जा रहा है? वेद मारवाह और प्रकाश सिंह जैसे अनुभवी पुलिस अधिकारी लाख सलाह देते रहें कि पुलिस को राजनीति दबावों से दूर रखा जाए, यहां उनकी बात सुनने वाला कोई नहीं है। सेना और पुलिस के बीच यही फर्क तो है कि एक सैनिक अपना तबादला रुकवाने या करवाने के लिए मंत्री अथवा विधायक के बंगले नहीं जा सकता, जबकि पुलिस में डीजीपी को एक तबादला भी अपने आप करने का हक नहीं हैं, और यदि है तो सिर्फ कागज पर।
दूसरी बात केन्द्रीय रिजर्व पुलिस याने सीआरपीएफ के संबंध में है। राज्य सरकार केन्द्र से माँग करती है और केन्द्र बस्तर के लिए निरंतर सीआरपीएफ के संख्या बल में बढ़ोतरी करते जाता है। वे कांकेर के जंगल वारफेयर स्कूल में विशेष प्रशिक्षण भी पाते हैं। इसके बावजूद समस्याग्रस्त इलाके में उनकी तैनाती से कोई इच्छित परिणाम नहीं निकल पाया है। यहां इस बात पर भी विचार करना होगा कि क्या सीआरपीएफ के प्रशिक्षण में कोई कसर बाकी है या उनका मनोबल अपेक्षित स्तर पर नहीं है! जिन गाँवों में पुलिस तथा सीआरपीएफ के शिविर हैं, वहां ग्रामवासियों के साथ उनका विश्वास का रिश्ता कायम होने में भी क्या कोई कमी है! कल ही बीएसएफ के पूर्व महानिदेशक एम.एल. कुमावत ने कहा कि कोई भी प्रभुसत्ता संपन्न राज्य सशस्त्र विद्रोह की स्थिति को स्वीकार नहीं कर सकता, लेकिन यह तो जानना ही होगा कि आखिरकार नक्सली जहां भी जाते हैं, हजारों ग्रामीण उनके साथ क्यों हो जाते हैं। श्री कुमावत ने लगभग इन्हीं शब्दों में यह बात एक टी.वी. चैनल पर की थी।
मैं सुरक्षा विशेषज्ञ नहीं हूँ। मुझे पुलिस की कार्यप्रणाली का भी ज्ञान नहीं है। एक नागरिक की हैसियत से मुझे लगता है कि किसी भी समाज में सुरक्षा बलों की सार्थक भूमिका तभी बन सकती है, जब जनता डरे नहीं, बल्कि उन पर विश्वास रखे। अगर नक्सल समस्या को सिर्फ कानून व्यवस्था (लॉ एंड ऑर्डर) के सीमित दृष्टिकोण से ही देखना है तो भी उसमें सफलता पाने के लिए राजनैतिक दबाव से मुक्त, पारदर्शी, चुस्त-दुरुस्त, संवेदनशील पुलिस बल तैयार करना होगा। फिर बात चाहे बस्तर की चाहे झाड़ग्राम की।
31 मई 2010 को देशबंधु में प्रकाशित
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