दिग्विजय, अरुंधति और अन्य
थोड़ा इतिहास में लौटें। यह सन् 2000 की बात है। दिग्विजय सिंह तब म.प्र. के मुख्यमंत्री थे। नई सदी का पदार्पण हो गया था और समाज के विभिन्न वर्ग अपने-अपने ढंग से उसका स्वागत कर रहे थे। टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने कॉलमों में सन् 2020 को प्रस्थान बिन्दु मानकर भविष्य का एक खाका खींचा। इसमें दिग्विजय सिंह को 'पूर्व प्रधानमंत्री' के रूप में चित्रित किया गया। हम नहीं जानते कि यह टाइम्स ऑफ इंडिया के पत्रकारों का अति उत्साह था या दिग्विजय सिंह के मीडिया प्रबंधन का कमाल कि उन्हें भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया जा रहा था। वे दूसरी बार म.प्र. की सत्ता पर काबिज थे और नाम के अनुरूप उन्हें अपराजेय माना जाता था। कांग्रेस की संस्कृति में कोई भी व्यक्तिएक सीमा के आगे सपने नहीं देखता और यदि देखता हो तो किसी को बतलाता नहीं है। वैसा करने में खतरे ही खतरे हैं।
केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम के बयानों और रणनीति पर सुदूर अमेरिका में बैठे व निजी चिंताओं में डूबे दिग्विजय सिंह ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की वह किसी की भी समझ में नहीं आ रही है। एक बेहद संवेदनशील मुद्दे पर सत्तापक्ष के एक बेहद जिम्मेदार पदाधिकारी को क्या अपनी ही पार्टी के एक बेहद महत्वपूर्ण विभाग संभाल रहे मंत्री की इस तरह से सार्वजनिक आलोचना करना चाहिए? क्या इसके लिए यह सही मौका था? क्या यह बात अमेरिका से लौटने के बाद नहीं की जा सकती थी? क्या इस बात को पार्टी की आंतरिक बैठक में नहीं उठाया जा सकता था? कुछ नेता बहुत कम बोलते हैं जैसे अर्जुनसिंह; उनके कथनों का मर्म समझना अक्सर कठिन होता है। दूसरी तरफ कुछ लोग बहुत ज्यादा बोलते हैं जैसे दिग्विजय सिंह; और वे वास्तव में क्या कहना चाहते हैं इसे संभवत: उनके निकटस्थ व्यक्ति भी नहीं जानते।
अभी कुछ पर्यवेक्षक श्री सिंह के बयान को सिंह-चिदंबरम के बीच अहम् के टकराव से उपजी प्रतिक्रिया के रूप में देख रहे हैं। लेकिन मामला शायद इतना सीधा-सरल नहीं है। दिग्विजय सिंह को सामान्यत: सिविल सोसायटी और एनजीओ क्षेत्र का शुभचिंतक माना जाता है। नक्सलवाद के प्रति उनका रुख कुछ-कुछ इस सोच के अनुकूल ही है। लेकिन उनके कार्यकाल में नर्मदा पर म.प्र. सरकार ने जो रुख अपनाया वह पूरी तरह से सिविल सोसायटी के खिलाफ था। उनके कार्यकाल में ही देश में शिक्षा के अद्भुत प्रयोग 'होशंगाबाद विज्ञान' को बंद कर दिया गया था। आज जब वे चिदंबरम के खिलाफ सार्वजनिक व्यक्तव्य दे रहे हैं तो उनका एक और विरोधाभास प्रकट होता है। महेंद्र कर्मा उनके पट्टशिष्य हैं। श्री कर्मा ही क्या, रविंद्र चौबे, चरणदास महंत, भूपेश बघेल जैसे नेताओं की प्रथम निष्ठा उनके साथ है। इनका वश चले तो दिग्विजय सिंह जी को छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री बनाकर ले आएं।
ऐसे में होना तो ये चाहिए था कि श्री सिंह आज से पांच साल पहले सलवा जुड़ूम की शुरुआत करने के लिए महेंद्र कर्मा को आड़े हाथों लेते, लेकिन हमें ध्यान नहीं आता कि इन पांच सालों में उन्होंने कोई ठोस प्रतिक्रिया दी हो; जबकि दूसरी ओर उनके कट्टर विरोधी अजीत जोगी सलवा जुड़ूम का लगातार विरोध करते रहे हैं। जोगी जी एक तरफ। कर्मा एंड कंपनी दूसरी तरफ। श्री सिंह के बयान के बारे में यह भी कहा जा रहा है कि उन्होंने पार्टी हाईकमान के इशारे पर ऐसा किया है। यह बात भी कुछ जमती नहीं है। अगर ऐसा होता तो संसद में चिदंबरम के बयान के समय सोनिया गांधी पूरे समय वहां तल्लीन होकर बैठे न रहतीं। यह अवश्य है कि दिग्विजय सिंह को इस समय राहुल गांधी का अत्यंत करीबी माना जाता है। म.प्र. और अन्यत्र उनकी पुरानी असफलताओं को नजरअंदाज कर दिया गया है। इधर चिदंबरम की महत्वाकांक्षा को लेकर भी चर्चाएं होने लगी हैं। कुल मिलाकर एक धुंधली तस्वीर बनती है और कहीं हल्का सा कयास होता है कि दिग्विजय सिंह कहीं टाइम्स ऑफ इंडिया की भविष्यवाणी को फलीभूत करने के प्रयत्नों में तो नहीं जुटे हैं।
यह उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ में सत्तारूढ़ भाजपा के नेताओं व उनके समर्थकों ने अभी तक दिग्विजय सिंह को अपना निशाना नहीं बनाया है। कुछ भी हो, वे कद्दावर राजनेता हैं और वे अगर प्रदेश यात्रा पर आना चाहेंगे तो उन्हें भला कौन रोक पाएगा! यह अरुंधती राय का दुर्भाग्य है कि वे राजनेता नहीं हैं। इसलिए उन्हें आगे कभी छत्तीसगढ़ आने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। राजनेताओ पर जब-तब मुकदमे लगा दिए जाते हैं और अनुकूल समय में वापिस भी ले लिए जाते हैं। अरुंधती राय पर अगर मुकदमा चला तो उससे उन्हें अगले बीस साल निजात नहीं मिलेगी। उन्होंने 'आउटलुक' में जो लंबा निबंध लिखा, वह मेरी निजी राय में कठोर वास्तविकता से हटकर एक रूमानी वक्तव्य है। ये अरुंधती वही हैं जिन्हें अपने पहले उपन्यास पर बुकर पुरस्कार साम्यवाद विरोधी तस्वीर के कारण मिला था। बहरहाल, उनके अपने विचार हैं और उनसे हर किसी का सहमत होना आवश्यक नहीं है। किंतु यह विचारणीय है कि असहमति का स्वरूप क्या हो।
अरुंधती राय के लेख में ऐसे बहुत से बिन्दु हैं जिनको तर्कों से खारिज किया जा सकता है। यदि सुश्री राय पर मुकदमा चलता भी है तो अदालत में लेख को तर्क की तुला पर ही तौला जाएगा। लेकिन मुझे नहीं लगता कि छत्तीसगढ़ में एकाध दर्जन व्यक्तियों को छोड़कर किसी ने भी इस लेख को पूरा पढ़ा है। अगर पढ़ा होता तो जवाब देने का ढंग दूसरा होता। रायपुर के विश्वजीत मित्रा नामधारी स्वघोषित सामाजिक कार्यकर्ता अपने भाग्य को सराह सकते हैं कि अरुंधती के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराकर वे राष्ट्रीय तो क्या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्यात हो गए हैं। हमारे पत्रकार बंधु बबन प्रसाद मिश्र ने भी एक लेख में मेधा पाटकर, अरुंधती राय और महाश्वेता देवी की तुलना क्रमश: ताड़का, शूर्पणखा और मेनका से कर दी है। मिश्र जी को लेख लिखते समय शायद यही उपमाएं ध्यान में आईं। वे मंथरा, कैकयी, सुरसा आदि से भी तुलना कर सकते थे। मैं फिलहाल उनसे सिर्फ इतना समझना चाहता हूं कि 82 साल की महाश्वेता देवी की तुलना उन्होंने क्या सोचकर मेनका से की है!
22 अप्रैल 2010 को देशबंधु में प्रकाशित
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