Monday, 21 May 2012

प्रश्न, प्रवक्ता, नेता और मीडिया


एक सीधी सी बात को हमारे राजनेता और जिम्मेदार अधिकारी शायद जानबूझकर भी नहीं समझना चाहते। एक ओर ज्ञान युग, ज्ञान समाज तथा संचार क्रांति की बातें बढ़-चढ़कर होती हैं; दूसरी ओर यह ध्यान नहीं दिया जाता कि यह नया माहौल राजनीति व प्रशासन तंत्र के लिए किस तरह की नई चुनौतियां खड़ी कर रहा है। संचार क्रांति के चलते मीडिया का जो विस्फोटक विस्तार हुआ है उसने बहुत सारी मान्यताओं एवं परम्पराओं को तहस-नहस कर दिया है। यह नया समय किसी हद तक एक दृश्यमान मानसिक क्रूरता को उकसाने वाला है। जो सावधान नहीं है वे इस क्रूरता का शिकार हो रहे हैं। क्योंकि यह व्यापार आभासी वास्तविकता का है इसलिए संभव है कि नुकसान का तत्काल पता चल न पा रहा हो, किंतु इसमें कालांतर में जो नुकसान हो सकता है उसके बारे में अभी से सतर्कता बरतना बेहतर होगा। 

विश्व राजनीति पर हाल में आई पुस्तक ''समिट्स'' (Summits)  में अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन के कार्यकाल का उल्लेख करते हुए लेखक प्रो. डेविड रेनॉल्ड्स ने स्थापित किया है कि ''उद्धत मीडिया के चलते राष्ट्रपति जिस गोपनीयता के साथ अपनी नीतियां निर्मित करना चाहते थे, नहीं कर सके।'' यह वाटरगेट के पहले की बात है। कहने का आशय कि मीडिया जिस आक्रामक तरीके से जीवन के हर क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रहा है, उसके चलते निजता, गोपनीयता, पवित्रता आदि सब धारणाएं तार-तार हो रही हैं। ऐसा अगर व्यापक जनहित में होता तो कोई बात नहीं थी, लेकिन इसका उद्देश्य कुछ अलग ही है। मीडिया जब मूर्तिभंजन करता है तो उसके दो नतीजे निकलते हैं। एक तो मीडिया अपने लिए, क्षणिक ही सही, सस्ती लोकप्रियता हासिल करता है जिसे टीआरपी आदि से आंका जाता है। इस तरह उसके व्यवसायिक हित सधते हैं। दूसरे, ऐसा करने से जनतांत्रिक राजनीति के प्रति अविश्वास पैदा होता है। यह अनायास नहीं है कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री आदि को सीईओ की संज्ञा दी जाने लगी है। यह दुनिया पर कारपोरेट पूंजी के नियंत्रण की तरकीब है। 


आज यह सब लिखने की जरूरत इसलिए महसूस हो रही है कि हमारे राजनेता टी.वी. के परदे पर आने के लिए उतावले बैठे हुए हैं। उन्हें टी.वी. का परदा कुछ इस तरह से आकर्षित करता है जैसे बाजार में आए बच्चे को शो-केस में रखे खिलौने। बच्चा मचल उठता है कि उसे खिलौना नहीं मिलेगा तो घर नहीं लौटेगा। वैसे ही अनेक राजनेता है जो प्रतिदिन कम से कम एक चैनल पर दिखे बिना घर नहीं लौटते। उन्हें लगता है कि इसमें उनकी खूब वाहवाही हो रही है, लेकिन इस आत्ममुग्धता के कारण पार्टी को कितना नुकसान हो रहा है इसके बारे में वे बिलकुल भी विचार नहीं करते। मुझे आश्चर्य होता है कि जिन्हें हम वयस्क और उत्तरदायी समझते हैं वे क्यों कर ऐसे प्रपंचों में पड़ जाते हैं। वे यदि इस व्यामोह से मुक्त होने में असमर्थ हैं तो पार्टी का शीर्ष नेतृत्व क्या कर रहा है?


इस संदर्भ में कुछ उदाहरण सामने रखना उचित होगा। मेरी जानकारी में सीपीआई महासचिव ए.बी. बर्ध्दन व जदयू के अध्यक्ष शरद यादव अपवाद स्वरूप ऐसे नेता हैं जो मीडिया के फंदे में नहीं फंसते। वे किसी चैनल में नहीं जाते। उनके विचार जिन्हें जानना हो वे समय लें और घर पर आकर बात करें। वे इस बात की भी इजाजत नहीं देते कि उन्हें बिना श्री या जी लगाए संबोधित किया जाए। याने आपको उनसे बात करना हो तो तमीज के साथ ही करना होगा। लेकिन बाकी का क्या हाल है। अंग्रेजी के दो चैनल तो पार्टी प्रवक्ताओं से, बल्कि बड़े नेताओं से सीधे नाम लेकर इस तरह बात करते हैं जैसे कि वे लंगोटिया यार हों। यह भारत में अंग्रेजी का अभिमान है। इस तरह की छूट तो बीबीसी भी नहीं लेता और न 'द
इकोनोमिस्ट' जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका।

यह संभव है कि टी.वी. के सूत्रधारों के इन प्रवक्ताओं के साथ प्रथम नाम संबोधन के रिश्ते हों। लेकिन यह व्यवहार सार्वजनिक रूप से नहीं होना चाहिए। जब आप रवि (रविशंकर प्रसाद), मणि (मणिशंकर अय्यर), सलमान (सलमान खुर्शीद), सीता (सीताराम येचुरी), जयंती (जयंती नटराजन) जैसे संबोधन सार्वजनिक रूप से देते हैं तो श्रोता-दर्शक को यही लगता है कि मीडिया के सामने राजनेता छोटे पड़ गए हैं। सौभाग्य से हिन्दी चैनलों में अभी यह नहीं हुआ है। गो कि विनोद दुआ जैसे एकाध सूत्रधार हैं जो अपनी सर्वज्ञता का आतंक उत्पन्न करने का प्रयत्न करते हैं। अंग्रेजी और हिन्दी का यह फर्क हमारी गुलाम मानसिकता को ही दर्शाता है। यह बदकिस्मती है कि हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाएं इस तरह से लगातार अंग्रेजी के सामने लगातार दबती जा रही हैं।


विचारणीय है कि लगभग हर बड़ी पार्टी के दिल्ली में अपने 
सुसज्जित कार्यालय हैं। कुछेक के पास पत्रवार्ता के लिए विशेष रूप से निर्मित कक्ष भी हैं। हरेक पार्टी में प्रवक्ताओं की भी अपनी-अपनी फौज है। जब भी लोकमहत्व का कोई प्रश्न उपस्थित होता है- सरकार के प्रवक्ता पत्र सूचना कार्यालय में पत्रवार्ता करते ही हैं और पार्टी प्रवक्ता अपने-अपने दफ्तर में। उन्हें वहां जो कहना है, कह चुके होते हैं। इसके बाद अगर किसी पत्रकार को कुछ जानना हो तो वह अतिरिक्त प्रयत्न कर जानकारी हासिल कर सकता है। इसके बाद किसी भी मंत्री, नेता या प्रवक्ता को टी.वी. स्टूडियो में जाकर अंतहीन बहसों में अपना समय क्यों गंवाना चाहिए! इससे चैनल को जो भी लाभ होता हो, पार्टी को क्या लाभ मिलता है? मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है कि पिछले आम चुनाव में सीपीआईएम को जो नुकसान उठाना पड़ा, उसका एक बड़ा कारण यह भी था कि पार्टी के नेता मैदान में कम व टी.वी. स्टूडियो में ज्यादा समय बिताते थे। 

मेरी राय में हर पार्टी को यह निर्णय लेना चाहिए कि वे अपनी बात संसद और विधानसभा में बहसों द्वारा जनता तक पहुंचाएंगे। और दूसरे यह कि उन्हें अगर इसके बाद कोई बात कहना है तो पार्टी दफ्तर में ही कहेंगे। उन्हें शैम्पू और हेयर डाई के विज्ञापन के बीच बच रहे समय में आयोजित बहसों में अपने प्रवक्ताओं का जाना बंद कर देना चाहिए। हम लोग देख रहे हैं कि तथाकथित कवि सम्मेलनों में फूहड़ कवि राजनेताओं को गालियों से नवाजते हैं और उपस्थित नेतागण हंस-हंस कर तालियां बजाते हैं। टी.वी. के सूत्रधार भी अपने नियंताओं के आदेश पर इसी तरह स्टूडियो में बुलाकर राजनेताओं को अपमानित कर रहे हैं। तो क्या वे सचमुच इसी के योग्य हैं? 


  3 जून 2010को देशबंधु में प्रकाशित 

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