Monday, 21 May 2012

प्रायोजित पत्रकारिता की चुनौतियां-1



हमारे पत्रकार साथी स्व. प्रभाष जोशी व पी. साईंनाथ ने आज से लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व चुनावी खबरों के संदर्भ में प्रायोजित पत्रकारिता का सवाल उठाया था। स पर जो बहस छिड़ी वह अब तक चली आ रही है। इसमें यह सिध्द हुआ कि चुनावों के समय राजनीतिक दल एवं उम्मीदवार ''गुप्तदान'' कर मीडिया में अपने अनुकूल सामग्री प्रकाशित करवा लेते हैं। इसे लेकर भारतीय प्रेस परिषद एवं चुनाव आयोग में भी गंभीर चर्चाएं हुइं तथा इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के उपाय सोचे गए। चुनाव आयोग ने तो प्रायोजित पत्रकारिता पर निगाह रखने के लिए जिला निर्वाचन अधिकारियों को भी निर्देश जारी किए हैं। जितनी भी चर्चाएं हुइं उनसे यह बात सामने आई कि ''गुप्तदान'' लेने की परंपरा हिन्दी पत्रकारिता में ज्यादा प्रचलित है। यद्यपि अंग्रेजी व अन्य भाषाई मीडिया इससे पूरी तरह मुक्त नहीं है। मैंने इस विषय का विश्लेषण कुछ अलग हटकर करते हुए 14 जनवरी  को ''मीडिया की नैतिकता'' कॉलम लिखा था। उसके बाद रायपुर के पत्रकारिता विश्वविद्यालय में इसी विषय पर आयोजित सेमीनार में प्रमुख वक्तव्य देते हुए मैंने कुछ और बिंदु उठाए थे।

मेरा मानना है कि प्रायोजित पत्रकारिता सिर्फ चुनाव के समय नहीं होती और इसलिए चर्चा को वहीं तक सीमित न रखकर विषय को व्यापक संदर्भों में देखा जाना चाहिए। अभी मीडिया में भ्रष्टाचार को लेकर जो खबरें आ रही हैं उनसे इसकी पुष्टि होती है। इसी नाते मैं विषय को फिर से उठाना चाहता हूं। यह सही है कि चुनावों के समय पार्टियों और उम्मीदवारों द्वारा मीडिया की यथायोग्य सेवा की जाती है। इसमें मीडिया के मालिक ही नहीं, दूरदराज के कस्बों तक बैठे हुए पूर्णकालिक या अंशकालिक पत्रकार भी लाभ पाते हैं। कई बार तो उम्मीदवारों को यह ज्यादा किफायती और व्यवहारिक मालूम होता है कि चुनाव क्षेत्र विशेष के पत्रकारों की सेवा कर दी जाए जिसके बल पर आजकल के चलन के अनुसार जिला संस्करण में उन्हें यथोचित कवरेज मिल जाए, और ऊपर संपादक या स्वामी की सेवा न करना पड़े।

यह तस्वीर का एक छोटा सा हिस्सा है। जो चतुर राजनेता हैं, वे समय-समय पर उपहार देकर मीडिया के साथ निरंतर अच्छे संबंध बनाकर चलते हैं, और समय आने पर संबंधों को भुना लेते हैं। इसे दीर्घकालीन पूंजी निवेश कहा जा सकता है! लेकिन सिर्फ नेता ही ऐसा नहीं करते। उद्योगपति, व्यापारी, समाजसेवक भी इस तरह से संबंध विकसित करने की ताक में हमेशा रहते हैं। मीडिया भी कम चतुर नहीं है। फूलों की प्रदर्शनी हो या बाबा का प्रवचन या धार्मिक जुलूस या स्कूल का वार्षिकोत्सव-मीडिया में उन्हीं को स्थान मिलता है जो अपने बजट में पत्रकारों के लिए प्रावधान रखकर चलते हैं। कई बार संस्थाएं अपने कार्यक्रमों में संपादकों को मुख्य अतिथि या अध्यक्ष बनाकर बुलाती हैं ताकि मीडिया में उनका नाम छप सके। इस तरह एक फूलमाला, एक गुलदस्ता और एकाध सस्ते से स्मृतिचिन्ह में काम निकल जाता है। रायपुर में नेता पद के एक अभिलाषी जो एक शिक्षण संस्था से जुड़े थे वर्षों दीवाली पर मुझसे मिलने आते रहे। वे जैसे ही नगर निगम का चुनाव जीते, उन्होंने आना बंद कर दिया।

इसी तरह मीडिया को साधने का एक बड़ा उपाय विज्ञापन है। एक समय अखबारों के दीपावली विशेषांकों में स्थानीय छोटे-मोटे व्यापारियों के विज्ञापन नियमित छपते थे। उन दिनों अखबारों की संख्या कम थी व विज्ञापन देने के पीछे ''अपने'' अखबार को समर्थन देने की निर्दोष भावना थी। इधर राष्ट्रीय व बहुराष्ट्रीय कारपोरेट घराने विज्ञापनों के माध्यम से मीडिया को साध रहे हैं। ऐसे प्रसंगों की कमी नहीं है जब कारखाने में दुर्घटना होने, हड़ताल होने या आयकर की चोरी पकड़े जाने की खबर छपने पर विज्ञापन बंद कर दिए गए। हमने जब रायपुर में गणतंत्र दिवस की परेड में एक विदेशी सीमेंट कंपनी की झांकी शामिल करने की आलोचना की तो उस कंपनी ने ''देशबन्धु'' को विज्ञापन देना बंद कर दिया। मीडिया पर ऐसा दबाव सरकार की तरफ से भी आता है। यह सत्ता का विशिष्ट गुण है कि उसे आलोचना कबूल नहीं होती। सत्ताधीश धीरे-धीरे कर चाटुकारों से घिर जाते हैं और उन्हें निष्पक्ष, निर्भीक राय देने वाले फिर नहीं सुहाते। ऐसे में जो खुशामद करते हैं अथवा मुंहदेखी लिखते हैं, उन्हें न सिर्फ भरपूर विज्ञापन मिलते हैं बल्कि और भी बहुत से उपायों से इात बख्शी जाती है।

मैंने इन स्थितियों का नजदीक से अनुभव किया है। इस नाते मैं कह सकता हूं कि चुनावों के समय प्रायोजित पत्रकारिता की बात करना विषय को बहुत ही एकांगी और संकीर्ण रूप में देखना है। अभी हाल में 2-जी स्पैक्ट्रम घोटाले के सिलसिले में कुछ एक जाने-माने पत्रकारों को लेकर जो संदेह उभरे हैं, उनसे मेरे कथन को बल मिलता है। यह स्वाभाविक है कि सत्ता में बैठे लोगों और पत्रकारों के बीच संबंध बनें। यह भी संभव है कि कोई पत्रकार किसी मंत्री या नेता का विश्वस्त सलाहकार हो। लेकिन यह तभी जायज होगा जब नेता विशेष के साथ संबंध सिर्फ उसके सत्ता में रहने तक सीमित न हो। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि ऐसा नहीं है। दूसरे शब्दों में अनेक पत्रकार सत्ता और पूंजी के बिचौलिए बनकर काम कर रहे हैं।

यह जो नया परिदृश्य है। इसके पीछे मुख्य रूप से देश के राजनैतिक-आर्थिक माहौल में पिछले बीस साल में आई तब्दीली है। यूं तो पहले भी मीडिया में प्रायोजित सामग्री छपती थी, लेकिन उन दिनों स्थिति इतनी भयावह नहीं थी। टी.वी. नहीं आया था, अखबार कम निकलते थे, उनका प्रसार भी कम था और नेता, व्यापारी, पत्रकार सब किसी हद तक मर्यादाओं का पालन करते थे, और समाज में आज की तरह  विचारहीनता व्याप्त नहीं थी। ट्रेड यूनियन, छात्र संगठन, वि.वि., लेखकगण ये सब मिलकर समाज का एजेण्डा बनाते थे। उस दौर में मीडिया पर पूंजी का प्रभुत्व भी ऐसा नहीं था। आज ऐसा नहीं है, इसलिए जो हो रहा है वह सबके सामने है।

 2 दिसंबर 2010 को देशबंधु में प्रकाशित 

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