सामान्य तौर पर जब किसी विषय पर चर्चा होती है तो सबसे पहले उससे जुड़ी परम्परा अथवा स्मृति से हासिल परिभाषा और धारणाएं सामने आती हैं। आज जो विषय है उसके दोनों पक्ष याने ललित कला और मीडिया भी इसका अपवाद नहीं हैं। ललित कला से अमूमन हमारा अभिप्राय नृत्य, संगीत और चित्रकला-मूर्तिकला से होता है। इसी तरह मीडिया को अखबार, टीवी और भूले-भटके रेडियो तक सीमित मानकर चला जाता है। अगर इसी सोच को आधार बनाकर बात की जाए तो वह अधूरी कहलाएगी। दूसरे शब्दों में जरूरत इस बात की है कि ललित कला और मीडिया इन दोनों की परिभाषा का विस्तार आज के समय में कहां तक है, यह जान लिया जाए।
ललित कला में नृत्य, संगीत और चित्रकला का समावेश तो है ही, इसमें सिनेमा, फोटोग्राफी और रंगमंच को भी जोड़ना चाहिए। जो कला के प्रति शुध्दतावादी दृष्टिकोण रखते हैं उन्हें शायद इस विस्तारीकरण से एतराज हो, क्योंकि इन प्रदर्शनकारी कलारूपों में विविध तकनीकों का अवलंब लिया जाता है। इस बारे में कहना न होगा कि जो पारंपरिक कलाएं हैं, वे भी ऐतिहासिक कालक्रम में अपने-अपने समय में ईजाद तकनीकों व यंत्रों का सहारा लेती रही हैं। एक क्षण के लिए क्रीड़ा का उदाहरण लें। आज कोई भी खेल ऐसा नहीं है, जिसमें नई-नई तकनीकों का उपयोग न किया जाता हो: इसके बाद भी वे सब खेल ही कहलाते हैं। यही बात कलाओं पर भी लागू होती है।
ललित कलाओं को परिभाषित करते हुए उन्हें तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। सबसे पहले तो कलाओं के शास्त्रीय रूप हैं, फिर लोक कलाएं हैं और अंत में आज के समय में जो प्रयोग हो रहे हैं वे नव्य रूप हैं। चूंकि हम कला और मीडिया के पारस्परिक संबंधों पर चर्चा कर रहे हैं; तब एक और बिन्दु ध्यान में आता है कि इन सारी कलाओं द्वारा स्वयं ही मीडिया की भूमिका निभाने की संभावना कहीं-न-कहीं अन्तर्निहित होती है। मीडिया में जहां समय व स्थान विशेष की घटनाओं एवं प्रवृतियों के साक्ष्य मिलते हैं, वहीं एक श्रेष्ठ कृति में यह शक्ति होती है कि वह सार्वदेशिक और सार्वकालिक रूप से प्रासंगिक हो जाए। मिसाल के तौर पर पिकासो की अमर कृति ''गुएर्निका''। इस तरह यदि एक रचना क्लासिक आयाम की है तो वह कलाकार की निजी अभिव्यक्ति को एक सार्वजनिक साँचे में ढाल देती है।
इसी तरह मीडिया का स्वरूप भी पिछली एक शताब्दी के दौरान बहुत तेजी के साथ परिवर्तित और विस्तृत हुआ है। इसमें जनसंचार के प्रारंभिक माध्यमों की अपनी जगह अब तक बनी हुई है; इसके बाद प्रेस, रेडियो और टीवी ने मिलकर मीडिया का वह स्वरूप बनाया जिससे उसे एक शास्त्रीय मान्यता मिली; अब हम इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में इंटरनेट के द्वारा नए मीडिया को प्रबल गति से विकसित होते देख रहे हैं। इनके अलावा सिनेमा और रंगमंच ऐसे माध्यम हैं जिन्हें मीडिया और कला दोनों श्रेणियों में सरलता से रखा जा सकता है। इस पृष्ठभूमि में हम ललित कला और मीडिया के पारस्परिक संबंधों को समझने की कोशिश करेंगे।
हमारा ध्यान सर्वप्रथम इस ओर जाता है कि आज के मीडिया में ललित कलाओं के लिए नहीं के बराबर स्थान है। एक तरफ नित-नए प्रकाशित हो रहे समाचार पत्र हैं, चौबीस घंटे चलने वाले टीवी चैनल हैं, आकाशवाणी के अलावा एफएम रेडियो केन्द्र हैं, यू-टयूब जैसे नए माध्यम हैं और इन सबका परिचालन करने के लिए नई से नई यांत्रिक विधियां हैं; लेकिन दूसरी ओर कलाओं के प्रति अवहेलना, अरुचि व उनके गैर-जरूरी होने का भाव है। एक समय समाचार पत्रों में कला समीक्षक हुआ करते थे, वे अब विलुप्तप्राय हैं। कभी आकाशवाणी से जुड़ने में लेखक और संगीतज्ञ न सिर्फ गौरव का अनुभव करते थे, बल्कि वह उनकी पहचान बनाने का एक सशक्त मंच था, यह भी एक पुरानी बात हो गई है। टीवी का विस्तार होने से रूपंकर कलाओं को महत्व मिलने की अपेक्षा की गई थी, वह सही नहीं उतरी। 78 आरपीएम के रिकार्डों और सिनेमा की पेटी से चलकर डीवीडी और वी सेट-तक सूचना तकनीकी पहुंच गई, लेकिन कलाओं का संवर्धन नहीं हो सका।
इस बात की पुष्टि में छत्तीसगढ़ से ही कुछ उदाहरण लिए जा सकते हैं। खैरागढ़ में सन् 1954 में स्थापित इंदिरा कला व संगीत विश्वविद्यालय है। यह प्रदेश का ही नहीं, देश का एकमात्र उच्च शिक्षा संस्थान है जो पूरी तरह ललित कलाओं को समर्पित है। हम इसे एशिया का ऐसा एकमात्र विश्वविद्यालय भी मानते हैं। लेकिन दु:खपूर्वक सच्चाई स्वीकार करना पड़ती है कि इस साठ वर्ष पुराने गौरवशाली संस्थान के साथ प्रदेश के मीडिया का मानो कोई रिश्ता ही नहीं है। वि.वि. की खबरें अखबारों के राजनांदगांव जिला संस्करण तक सिमटकर रह जाती हैं। उसमें भी ज्यादातर खबरें भीतरी राजनीति एवं प्रशासनिक मसलों पर होती हैं। वि.वि. का कला जगत को कोई योगदान है भी या नहीं, न तो अखबार पढ़कर जाना जा सकता और न टीवी समाचार देखकर।
जब एक महत्वपूर्ण संस्था के प्रति यह उदासीनता है, तब व्यक्तिश: कलाकारों के प्रति क्या रवैय्या होगा, यह सहज ही समझ में आता है। जो मीडिया बॉलीवुड के छोटे-मोटे कलाकारों के आने पर दीवाना हुआ जाता है, उसे अपने प्रदेश के बड़े से बड़े कलाकार के बारे में शायद ही कोई ज्ञान हो। कभी-कभार किसी कलाकार के बीमार पड़ने पर या कोई अनहोनी हो जाने पर मीडिया का ध्यान उस पर ारूर जाता है, वरना तो वे अक्सर हमारी दृष्टि से ओझल ही रहते हैं। इसका अपवाद सिर्फ वे कलाकार हैं, जो आत्मप्रचार का गुर जानते हैं। ऐसे में जो अपने काम में तल्लीन साधक कलावंत हैं, उन्हें कौन पूछे?
इसकी पहली वजह तो शायद यही है कि जीवनशैली में आ रहे निरंतर परिवर्तनों के कारण कलाओं के आस्वाद के लिए जो मानसिक अवकाश चाहिए, वह आज उपलब्ध नहीं है। इसे शायद यूं भी कहा जा सकता है कि मनुष्य सभ्यता ऐसे संक्रमण काल में है जैसी पहले कभी नहीं थी; इसे स्थिर होने में अब जितना भी वक्त लगे। उधर आज का मीडिया भी अपने समय का ही दर्पण है, इस नाते उससे भी शायद आज कोई बड़ी उम्मीद कलाकारों या कलाप्रेमियों को नहीं रखना चाहिए। यह निश्चित है कि कलाओं को संरक्षण की आवश्यकता होती है, जो उसे कभी नरेशों से, कभी सामंतों से और कभी श्रेष्ठियों से प्राप्त होते रहा है। इनका स्थान आज जनतांत्रिक संस्थाओं और कारपोरेट घरानों ने ले लिया है। एकतंत्र के स्थान पर जनतंत्र में कोई भी कार्य संपादित करने की जटिलताएं और सीमाएं हैं। यदि जनतांत्रिक राजनीति में विचार-न्यूनता अथवा विचार-शून्यता की स्थिति है तो कलाओं के संरक्षण की उम्मीद उससे करना किसी हद तक व्यर्थ ही होगा। ऐसी स्थिति में मीडिया की भूमिका भी स्वमेव सीमित हो जाती है।
(शासकीय कन्या महाविद्यालय दुर्ग में ललित कला पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में 07 फरवरी 2012 को विशिष्ट अतिथि की आसंदी से दिया गया व्याख्यान)
9 फरवरी 2012को देशबंधु में प्रकाशित
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