एक पत्रकार के साथ-साथ राष्ट्रीय जल बिरादरी के कार्यकर्ता होने के नाते मैंने ये विचार विकसित किए हैं। हो सकता है लोगों को इनसे कहीं असहमति भी हो। मुद्दे की बात यही है कि मीडिया के साथी अपनी तरफ से विषय का अध्ययन करें और फिर सुविचारित रूप से तथा अपेक्षित साहस के साथ जनता के सामने अपनी बात रखें। लेकिन मुझे शंका है कि भारत का मीडिया क्या कभी इस भूमिका को सफलतापूर्वक निभा सकेगा।
इसके लिए मीडिया के चरित्र को समझने की आवश्यकता है। उसकी शक्ति और सीमाओं को भी जान लेना जरूरी है। मीडिया का एक वर्ग निश्चित रूप से इतना समर्थ है कि किसी भी विषय का विस्तार से अध्ययन करना चाहे तो साधनों की कमी न पडे, फ़िर भी वह ऐसा नहीं कर पाता। मीडिया का एक वर्ग वह भी है जो साधनों की कमी के कारण पीछे हट जाता है। तीसरी मुश्किल इस बात की है कि अब गंभीर पत्रकारिता करने के लिए जिस प्रशिक्षण तथा ध्येयनिष्ठता की जरूरत होती है वह लगभग नदारद है। सिर्फ पानी ही क्यों ऐसे तमाम मसले हैं जिन पर मीडिया से उम्मीद तो बहुत की जाती है, लेकिन अंत में जाकर निराशा ही हाथ लगती है।
जब हम मीडिया से अपेक्षा करते हैं तो यह भी जान लेना चाहिए कि हम किससे मुखातिब हैं। अगर संपादक या पत्रकार से बात कर रहे हों तो यह तय मानिए कि उसके परिणाम आधे-अधूरे ही मिलेंगे। यह संभव है कि पत्रकार की संवेदनाएं एवं सहानुभूति आपके साथ हो, लेकिन पत्रकारिता के आंतरिक तंत्र के भीतर क्या उसे इतनी छूट है कि वह अपनी तरफ से किसी गंभीर मुद्दे का तार-तार विश्लेषण कर समाज के सामने रख सके! यह बात भी उन गिने-चुने पत्रकारों के संदर्भ में ही है जो संभवत: ऐसे मुद्दों को समझते हैं। जिन्हें प्रशिक्षण नहीं मिला है उनसे तो कोई भी उम्मीद करना व्यर्थ है। यदि मीडिया के संचालक या स्वामी से कोई अपेक्षा की जा रही हो तो वह भी उतनी ही व्यर्थ है। जब पत्रकारिता का कर्म पूरी तरह से पूंजी आधारित और पूंजी उन्मुख हो चुका हो तब ऐसे किसी भी प्रकल्प में मीडिया प्रबंधन की दिलचस्पी नहीं होगी जिससे तत्काल मुनाफा न मिलता हो। यदि गंभीर काम करने से नुकसान की आशंका हो तब तो ऐसे काम से दूर रहने में ही उनकी भलाई है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए कुछ उदाहरण सामने रखे जा सकते हैं।
मप्र के दुर्ग जिले में (अब छत्तीसगढ) दिग्विजय सिंह सरकार ने शिवनाथ नदी में बाईस किलोमीटर लंबाई का एक हिस्सा एक निजी कंपनी को सौंप दिया। राज्य बनने के बाद यह प्रकरण प्रकाश में आया। आज भी पूरी दुनिया के जलयोद्धा इसे एक मिसाल के तौर पर देखते हैं। प्रदेश के अखबार इस आंदोलन में सामने आकर जनता के साथ खड़े होंगे, यह सहज विश्वास था लेकिन जो निजी कंपनी से मुनाफे की उम्मीद लगाकर बैठे थे उन्होंने उस जनता का साथ देने से इंकार कर दिया, जिससे पानी छीन लिया गया था। छत्तीसगढ़ के अब तक हुए दोनों मुख्यमंत्रियों ने इस ठेके को निरस्त करने की घोषणा की व विधानसभा की लोकलेखा समिति ने इस पर गंभीर टिप्पणियां करते हुए ठेका खत्म करने की सिफारिश की, लेकिन मीडिया ने जो खामोशी प्रारंभ से ओढ़ रखी है वह अब तक नहीं टूट सकी। इसी तरह छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के प्राचीन और भव्य बूढ़ातालाब के एक बडे हिस्से को पाटने का षड़यंत्र रचा गया। इस पर भी जब जनआंदोलन हुआ तथा विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधि सामने आए तब भी मीडिया ने उदासीन रहना ही उचित समझा। जिन प्रभावशाली व्यक्तियों ने यह निर्णय लिया था उनके लिए मीडिया को साध लेना बहुत आसान काम था। यह भी नहीं ऐसा सिर्फ रायपुर में हो रहा हो। छ.ग. के विभिन्न नगरों से आए दिन तालाबों के पाटे जाने व उनकी जगह पर व्यावसायिक परिसर बनने की खबरें देखता रहता हूं। महासमुंद का अच्छा खासा तालाब पाटकर वहां बस स्टैंड बना दिया गया। ऐसे अनेक प्रकरण हैं। दूसरी तरफ तालाबों के सौंदर्यीकरण की योजनाएं चलती रहती हैं। अखबार उन पर मुग्धभाव से रिर्पोटिंग करते हैं। निर्माण कार्य से गहरा सागर शायद दुनिया में दूसरा नहीं है जिसकी थाह सामान्य जन पा ही नहीं सकता।
इधर मीडिया में एफडीआई याने विदेशी पूंजी निवेश खूब हो रहा है। जो सीधे आ रहा है वह तो दिखता है, लेकिन अगर विज्ञापनों के माध्यम से या अन्य किसी रूप में पूंजी आ रही हो तो उसका पता लगाना ही कठिन है। दुनिया के बाजार में पानी का व्यापार करने वाली कंपनियां मसलन स्वेज या बैकटेल या अन्य कोई भारत में किसी अखबार या चैनल में किसी भी रूप में पैसा लगाएं तो फिर यह कैसे संभव होगा कि मीडिया पानी के निजीकरण का विरोध करे। आज हमारा मीडिया शिक्षण संस्थाओं के निजीकरण, स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण, बैंक और बीमा का निजीकरण आदि की वकालत कर रहा है। एक प्रमुख अखबार ने कल-परसों में एक लेख छापा है कि खेतिहर जनसंख्या में जितनी कमी आएगी, उतना ही यह देश के विकास का सूचक होगा। जहां ऐसी सोच विकसित हो रही हो, वहां पानी पर मीडिया से किस तरह की पहल की उम्मीद हम करते हैं?
ऐसा नहीं कि सिर्फ विदेशी पूंजी के दबाव में भारतीय मीडिया झुक रहा हो। उसने अपने तौर पर भी व्यवसायिक हित विकसित कर लिए हैं। एक समय म.प्र. के अनेक समाचार पत्र प्रदेश के जल स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग में पाइप सप्लाई करने वाले ठेकेदार बन गए थे। इसमें कहीं-कहीं राजनेताओं की भागीदारी की बात भी सुनाई पड़ती थी। आज भी अगर मीडिया स्वामी ऐसे ही उपक्रमों में भागीदार हों तो आश्चर्य क्या!
इस सिलसिले में मैं एक और बात की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। सोलह पेज के एक अखबार का मूल्य आज की दर पर कम से कम सात रुपया होना चाहिए जबकि अखबार एक से तीन रुपए के बीच बिक रहे हैं। अन्य स्रोतों से हो रही आमदनी को वे अखबार का घाटा पूरा करने में लगाते हैं तथा दूसरे छोर पर अखबार का उपयोग ऐसी दीगर कमाई करने में करते हैं। अगर अखबारों के पन्ने कम हो जाएं और सही कीमत पर बिकें तो पत्र की सामग्री में भी गंभीरता आएगी तथा अखबारी कागज के लिए जो जंगल कटते हैं उसकी भी रक्षा होगी। जलसंकट से उबरने के लिए इस पहलू पर भी समाज को गौर करने की जरूरत है। (समाप्त)
2 जुलाई 2009 को देशबंधु में प्रकाशित
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