भ्रष्टाचार तो आज़ादी के पहले से है
भ्रष्टाचार को सामान्यत: दैनंदिन राजनीति के ऐसे निचले पक्ष के रूप में देखा जाता है जिसमें चंद लोग अपने निजी फायदे, खासकर आर्थिक लाभ उठाने और संपत्ति इकट्ठा करने के लिए कानून के साथ तोड़-मरोड़ करते हैं। इस आचरण को अपवाद माना जाता है और ऐसे अपवाद, घोटाले, आपराधिक प्रकरण जब उजागर होते हैं तो उसे लोकतांत्रिक व्यवस्था की शक्ति के रूप में देखा जाता है।''
भारतीय राजनीति के एक गंभीर अध्येता अमेरिकी विद्वान पॉल आर. ब्रास ने अपनी ताजा पुस्तक में यह टिप्पणी की है। श्री ब्रास गत पांच दशक से अधिक समय से भारतीय राजनीति का गहराई से अध्ययन कर रहे हैं। 1966 में उनकी पहली किताब उत्तरप्रदेश की राजनीति पर आई थी जिसकी बेहद चर्चा हुई थी। इन दिनों वे पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरणसिंह की वृहद जीवनी लिख रहे हैं, जिसका पहला भाग थोड़े समय पूर्व प्रकाशित हुआ है। ''एन इंडियन पॉलिटिकल लाइफ'' शीर्षक इस पुस्तक के पहले खंड में उन्होंने उत्तरप्रदेश की राजनीति और विशेषकर चरणसिंह को केन्द्र में रखकर भारतीय राजनीति का विश्लेषण किया है।
अपनी पुस्तक के एक अध्याय में लेखक भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार निवारण दोनों पर चर्चा करते हैं। लेख के प्रारंभ में दी गई टिप्पणी को आगे बढ़ाते हुए वे भारत की विशेष परिस्थितियों का उल्लेख करते हैं। उनका कहना है कि ''अन्य समाजों में जहां भ्रष्टाचार के प्रकरणों को जनतांत्रिक व्यवस्था पर एक काले धब्बे के रूप में देखा जाता है वहीं भारत में धारणा कुछ अलग है।'' लेखक के अनुसार यद्यपि चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने पचास के दशक में भारतीय व्यवस्था में मौजूद भ्रष्टाचार का कारण ''परमिट-लाइसेंस-कोटा राज'' को बताया था, तथापि ऐसा नहीं है कि देश में भ्रष्टाचार की शुरूआत आजादी के बाद हुई हो।
लेखक का आगे कहना है, ''भ्रष्टाचार के तंत्र के कुछ ऐसे पहलू हैं जिन पर ठीक से गौर नहीं किया गया है। सबसे अव्वल तो यह है कि भ्रष्टाचार यहां तक कि आपराधिक व्यवहार आजादी के बहुत पहले से भारत की शासन व्यवस्था में व्यापक रूप से मौजूद था। वह योजनाबध्द आर्थिक विकास की प्रक्रिया शुरू होने के बहुत पहले जड़ें जमा चुका था। दूसरे, भारतीय समाज के हर स्तर पर याने गांव, शहर, जिला, राय तक भ्रष्टाचार बहुत पहले से भीतर घुसा हुआ था। तीसरे, भ्रष्टाचार के चलते भारतीय राजनैतिक बयानबाजी में एक नया तत्व आया कि व्यक्तिगत चरित्र और प्रतिष्ठा पर बात केन्द्रित होने लगी जिसके चलते अपने विरोधियों और दुश्मनों पर कीचड़ उछालना, आक्रमण करने का पसंदीदा माध्यम बन गया। परिणामस्वरूप जो भ्रष्ट नहीं हैं, उन पर भी अपने आपको हर समय बेदाग सिध्द करने की जरूरत आन पड़ी। इस तरह एक ऐसा माहौल बन गया जिसमें ऐसा एक व्यक्ति भी खोजना मुश्किल हो गया जिसे ईमानदार मानकर सत्ता की कुंजी विश्वासपूर्वक सौंपी जा सके। अपने समय में जवाहरलाल नेहरू ऐसे ही व्यक्ति थे, लेकिन स्थानीय स्तर पर तब भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी।''
ब्रास के इस कथन को देश के वर्तमान राजनीतिक हालात में परखा जा सकता है। एक साल पूरा हो गया है और भ्रष्टाचार के किस्से हैं कि रुकने का नाम ही नहीं लेते। अरेबियन नाइट्स याने सहस्र रजनीचरित अथवा कथा सरित्सागर की तर्ज पर हर दिन एक नया किस्सा सुनाया जा रहा है । सवाल उठता है कि ऐसा माहौल क्योंकर बन रहा है। क्या इसके पीछे कारपोरेट घरानों की चालबाजी है कि ऊपर सत्ता और पूंजी का गठबंधन बदस्तूर चलता रहे, लेकिन नीचे उन्हें कोई तकलीफ न हो। कहीं यह भ्रष्टाचार के मुद्दे को केंद्र में रख अन्य ज्वलन्त प्रश्नों से बचने की साजिश तो नहीं है, यह दूसरा प्रश्न भी मन में आता है। जो भी हो, यह आशंका उपजती है कि इसके चलते देश कहाँ जाएगा! यह तो गनीमत है कि आम जनता का विश्वास लोकतंत्र पर अभी तक बना हुआ है। मुखर उच्चवर्ग और मध्यवर्ग चाहे जितनी लानतें फेंकें, आम आदमी अपने वोट का इस्तेमाल लगातार बढ़ते हुए उत्साह के साथ कर रहा है। चिंता इस बात की है कि इस उत्साह को तोड़ने के लिए जो ताकतें बड़े जोर-शोर के साथ लगी हैं, वे कहीं कामयाब न हो पाएं।
दरअसल यहां पर राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी बड़ी है। उन्हें साथ मिल बैठकर व्यवस्था में ऐसे सुधार लाना चाहिए जिससे आम जनता के बीच राजनीतिक तंत्र की गिरती साख दुबारा कायम हो सके। इसका मतलब यही है कि जो जनतांत्रिक संस्थाएं और परंपराएं हैं, उन्हें सुचारु रूप से संचालित किया जाए। यह राजनेताओं को समझने की आवश्यकता है कि वर्तमान समय में उनका जैसा आचरण है वह आने वाले दिनों में उनके लिए आत्मघाती सिध्द हो सकता है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपना काम सही ढंग से करें, नित नए तमाशे खड़े न हो, कानून पर भरोसा हो लेकिन उससे यादा स्वस्थ परंपराओं का पालन हो, तभी सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को नियम नहीं, बल्कि अपवाद स्वरूप देखा जा सकेगा। इसके लिए चरित्रहत्या और ''कौव्वा कान ले गया'' की तर्ज पर हर रोज आरोप गढ़ने से बचना होगा और उसकी जगह ऐसी कार्यप्रणाली विकसित करना होगी, जिसमें आरोपों की छानबीन बिना भेदभाव के की जा सके।
जिन दूसरे देशों में जनतांत्रिक व्यवस्था, भले ही वह पूंजीवाद जनतंत्र क्यों न हो, ऐसी व्यवस्थाएं पहले से चली आ रही हैं। इस कारण वहां हर दूसरे रोज कोई नया किस्सा सामने नहीं आता। यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि अन्ना हजारे जैसी शक्तियां भारत में ही फलती-फूलती हैं। यूरोप, अमेरिका और जापान में ऐसे स्वयंभू मसीहाओं के लिए जगह ही नहीं होती। इसी तरह उन देशों में मीडिया भी अपेक्षाकृत यादा जवाबदेही के साथ अपना दायित्व निभाता है। जो अपनी मर्यादा तोड़ते हैं उनका हश्र्र वही होता है जो इग्लैंड में रूपर्ट मर्डोक के साथ हुआ।
पॉल आर. ब्रास का अध्ययन अपनी जगह पर सही है। भारतीय राजव्यवस्था में अगर अंग्रेजों के समय से या उसके पहले से भ्रष्टाचार चला आ रहा है तो कोई खुश होने की बात नहीं है। आज जब हम न किसी राजा की प्रजा हैं, न किसी राज के गुलाम और जब अपनी तकदीर स्वयं हमें बनाना है तब अपने लिए एक बेहतर नई व्यवस्था अथवा वर्तमान व्यवस्था में बेहतरी लाने के उपाय हम स्वयं क्यों नहीं कर सकते?
17 मई 2012 को देशबंधु में प्रकाशित
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