Monday, 21 May 2012

जल, जीवन और मीडिया- 1


भोपाल स्थित माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान इसी 19 जून को अपनी स्थापना के पगाीस वर्ष पूरे कर रहा है। सप्रे संग्रहालय देश में अपने तरह का अनूठा संस्थान है। पत्रकारिता के शोधकर्ताओं के लिए यह एक आवश्यक  बल्कि अनिवार्य संदर्भ केंद्र बन चुका है। विजयदत्त श्रीधर जिन्होंने इस संस्था को मूर्तरूप दिया व उनके सभी सहयोगी इस हेतु मीडिया जगत से भरपूर बधाई पाने के हकदार हैं। अपनी रजत जयंती के अवसर पर संग्रहालय वर्तमान समय के एक ज्वलंत मुद्दे पर परिचर्चा का आयोजन कर रहा है, यह और भी प्रसन्नता का विषय है।

इस प्रस्तावित परिचर्चा का विषय है- ''जल जीवन और मीडिया।'' संग्रहालय की निदेशक डॉ. मंगला अनुजा ने एक परिपत्र में संभावना व्यक्त की है कि जल संकट के समाधान की दिशा में मीडिया प्रभावी भूमिका निभा सकता है। उनकी आशा निराधार नहीं है। मीडिया का यह एक प्रमुख कर्तव्य है कि वह विभिन्न प्रश्नों पर लोकशिक्षण तथा जनचेतना जागृत करने का कार्य करे। विश्वव्यापी जलसंकट की भयावह 
सच्चाई को देखते हुए यदि मीडिया से सक्रिय रोल निभाने की अपेक्षा की जाती है तो उचित ही है। यह देखना होगा कि मीडिया का रोल कहां और किस स्तर पर हो सकता है। उसका प्रारंभिक दायित्व तो जल की उपलब्धता के बारे में प्रामाणिक जानकारी देना है। हर छोटे-बड़े अखबार या अन्य माध्यमों की अपने प्रभाव क्षेत्र में जो भी स्थिति है उस पर तथ्य परक जानकारी समाज के सामने रखना चाहिए। दूसरे चरण में उसे उन कारणों का विश्लेषण करने की आवश्यकता है जिनसे जलसंकट उत्पन्न हुआ है या दूर किया जा रहा है। इसके बाद उसे समाधान सुझाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। यहां उसे विशेषज्ञों के साथ संवाद स्थापित करने की आवश्यकता होगी।

जहां तक वर्तमान स्थिति के प्रकाश में लाने की बात है, मीडिया यह काम प्रारंभ से करते आया है। पचास साल पहले भी पानी को लेकर हो रही मारा-मारी या फिर नगर पालिका के सार्वजनिक नलों से फिजूल बहता पानी जैसी खबरें आए दिन समाचार पत्रों में छपती थीं। सार्वजनिक नल या कुएं पर कभी-कभार सिर फूटने की नौबत आती तो उसे भी अखबार छापते  थे। यह सिलसिला आज तक चला आ रहा है। अब गांव-गांव से जलसंकट की खबरें आती हैं। कभी नदियां सूखने की, कभी तालाब सूख जाने की, कभी पाईपलाइन फूट जाने की, कभी नहर के पानी को लेकर झगड़े की, कभी उद्योग बनाम कृषि का अधिकार पर, तो कभी जल प्रदूषण पर। आजकल  एक जुमला बहुत प्रचलित हो गया है कि अगर तीसरा विश्व युध्द छिड़ा तो वह पानी पर ही होगा, इसे भी हम आए दिन अखबार के कालमों में पढ़ सकते हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जल संकट के बारे में खबरें छापने वह अनदेखी नहीं कर रहा है। अब बात आती है जल संकट के कारणों को समझने की। यहां आकर मीडिया की मूलभूत कमजोरी सामने आ जाती है। पानी कम है या नहीं है यह तो दिखाई देता है, लेकिन ऐसा क्यों है इसे समझने की क्षमता संभवत: मीडिया के पास यदि है तो बहुत ही सीमित है। मौजूदा जलसंकट के पीछे ऐतिहासिक, प्राकृतिक, भौगोलिक, सामाजिक एवं नीतिगत कारण हैं। इनका विश्लेषण कैसे हो यह एक गंभीर प्रश्न है। उत्तर पाने के लिए मीडिया को बहुत ज्यादा परिश्रम करने की जरूरत है। यह समझना होगा कि जलसंसाधन विभाग के सचिव अथवा इंजीनियर जल विशेषज्ञ हों यह आवश्यक नहीं। जिन्होंने जल विज्ञान या हाइड्रॉलॉजी में उपाधियां हासिल की हैं वे भी अनेक कारणों का विश्लेषण करने में समर्थ नहीं होते। जिन राजनेताओं अथवा कथित विद्वानों के बयान छापे जाते हैं वे इस बारे में कितना ज्ञान रखते हैं कहना कठिन है।

अभी कुछ दिन पहले उगौन के वरिष्ठ राजनेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री सत्यनारायण जटिया का बयान पढ़ने मिला कि उगौन का जल संकट दूर करने के लिए नर्मदा को क्षिप्रा से जोड़ देना चाहिए। यह एक भावुक सोच है जो तथ्यों पर आधारित नहीं है। चूंकि एक बड़े नेता ने बात कही है इसलिए वह एक आकर्षक खबर बन जाती है। इस सोच का सबसे बड़ा उदाहरण पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम द्वारा प्रस्तावित नदी जोड़ योजना है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट भी उसी रौ में बह गया। इसके बहुत पहले तत्कालीन केन्द्रीय सिंचाई मंत्री के.एल. राव ने गंगा को कावेरी से जोड़ने की वकालत की थी। ये सब ऊंची उड़ान वाले, खर्चीले तथा महंगे प्रस्ताव हैं तथा इनकी उपादेयता संदिग्ध है। इन पर मीडिया को तर्कपूर्ण बहस करना चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इसी तरह नर्मदा जल को लेकर बडी-बड़ी योजनाएं बना ली गईं लेकिन राजनैतिक सुविधा तथा आर्थिक हितों के चलते उस पर कभी सुसंगत चर्चा नहीं हो सकी। मीडिया को जो तटस्थ, संतुलित व तथ्य आधारित रोल निभाना चाहिए था वह उसने नहीं निभाया। एक समय इंदौर शहर में नर्मदा का पानी लाने की मुहिम इंदौर के नेताओं व अखबारों ने मिलकर छेड़ी थी जो सफल हुई तथा नर्मदा का पानी वहां तक पहुंचा भी, लेकिन क्या आज कोई यह मानने के लिए तैयार है कि यह सिर्फ अल्पकालिक लाभ वाली योजना सिध्द हुई? अन्यथा शहर एक बार फिर पानी के लिए तरसता नर्मदा फेस-2 का इंतजार क्यों कर रहा है?         

(माधवराव सप्रे पत्रकारिता संग्रहालय एवं शोध संस्थान के रजत जयंती पर आयोजित संगोष्ठी में प्रस्तुत आलेख)
 18 जून 2009 को देशबंधु में प्रकाशित  

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