Monday, 21 May 2012

आम चुनाव और मीडिया की गिरती साख 2008



                                                    आम चुनाव और मीडिया की गिरती साख 


आज छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनावों का दूसरा और अंतिम दौर सम्पन्न हो जाएगा। जम्मू काश्मीर में दो चरण पूरे हो चुके हैं। अन्य चार राज्यों में भी आम चुनाव की प्रक्रिया अपने निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार चल रही है। इस परिदृश्य में मीडिया की भूमिका को लेकर काफी कुछ लिखा जा चुका है, लेकिन हमें लगता है कि इस पर समग्रता से विचार करना अभी बाकी है। हम अपनी बात संयुक्त राज्य अमेरिका में हाल में सम्पन्न राष्ट्रपति चुनाव के साथ प्रारंभ करना चाहते हैं। अमेरिका के महत्वपूर्ण अखबार न्यूयार्क टाइम्स ने इस चुनाव में खुली तौर पर बराक ओबामा का साथ दिया। चुनाव के एक सप्ताह पहले संपादक मण्डल के नाम से एक विशेष संपादकीय छपा जिसमें विस्तारपूर्वक वे सात या आठ कारण गिनाए गए जिनके आधार पर अखबार ने ओबामा का समर्थन करने का निर्णय लिया। इस खुलेपन और पक्षधरता की हम तारीफ करते हैं। लेकिन जो अमेरिका में हो सकता है वह भारत में भी हो यह जरूरी नहीं है। दोनों देशों की परिस्थितियां और परंपराएं अलग-अलग हैं। इसे याद रखकर ही सही निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है।

इसमें शक नहीं कि अमेरिका में मीडिया बहुत बड़ी हद तक स्वतंत्र है। इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि वहां अन्य जनतांत्रिक संस्थाएं अपने-अपने दायरे में अधिकतम जिम्मेदारी के साथ काम करती हैं। वहां डिस्ट्रिक्ट एटार्नी यानी सरकारी वकील भी निर्वाचित होता है। वह यदि अपने दो साल के कार्यकाल में अपराधियों को सजा ना दिला पाए तो अगले चुनाव में हार जाता है और जो लगातार अच्छा काम करे वह राष्ट्रपति तक बन सकता है। बिल क्लिंटन इसका अच्छा उदाहरण हैं जो अपने जिले याने काउंटी के सरकारी वकील हुआ करते थे। अमेरिका के विश्वविद्यालयों में अध्यापकों का भरपूर सम्मान होता है तथा हर विश्वविद्यालय की पहचान उसके अध्यापकों से ही बनती है। इसी तरह जो पुलिस अधिकारी अपने इलाके में बेहतरीन काम करता है उसे देश के दूसरे हिस्सों से बेहतर सुविधाओं वाले ऑफर मिलने लगते हैं। इतना ही नहीं, कल-कारखानों, दफ्तरों में वरिष्ठ और कनिष्ठ के बीच खुलकर किसी मुद्दे पर बातचीत होती है। ऐसा नहीं कि जो कनिष्ठ है, वह कोने में खड़ा रहे। मीडिया की स्थिति भी इससे अलग नहीं है। व्हाइट हाउस में पत्रकार वार्ता होती है। अधिमान्य पत्रकारों के लिए वरिष्ठता के क्रम में बैठने की व्यवस्था होती है। अगर इस बीच अखबार का प्रधान संपादक भी आ जाए तो उसे पीछे ही बैठना पड़ता है। पत्रकार वार्ता में प्रधान संपादक का क्या काम?  जाहिर है कि हमारे देश में यह माहौल नहीं है। यहां जिन्हें एक वाक्य ठीक से लिखना नहीं आता वे प्रधान संपादक बन जाते हैं। 

हमारे यहां चुनावों के समय विचित्र स्थिति निर्मित हो जाती है। हम पत्रकार हैं, इसलिए हमसे निष्पक्ष विश्लेषण की उम्मीद की जाती है। हमसे भविष्यवाणी करने के लिए भी कहा जाता है। लेकिन हम हैं कि अपने को बचाकर चलने में ही खैर मनाते हैं। यह ठीक है कि हर पत्रकार का एक राजनीतिक आग्रह होता है। लेकिन वह शायद वोट डालते समय ही एकाकी रूप से व्यक्त हो पाता है। कारण समझना कठिन नहीं है। एक तो अधिकतर अखबार और चैनल उन लोगों के स्वामित्व में है जिनका सामान्य तौर पर मीडिया से कोई लेना-देना नहीं है। यह बात कई बार कही जा चुकी है कि अखबार अपने मालिकों के लिए सिर्फ एक ''प्रॉडक्ट'' बनकर रह गई है। इसके चलते संपादक नामक संस्था लगभग विलुप्त हो चुकी है। दूसरे, जो भी संपादक या पत्रकार हैं वे अधिकतर कॅरियर अभिलाषी हैं। वे पत्रकारिता को एक सामाजिक कर्म के रूप में नहीं, बल्कि निजी अवसर के रूप में देखते हैं। ऐसे में यह उम्मीद करना ही व्यर्थ है कि न्यूयार्क टाइम्स की तरह भारत में कोई संपादक मण्डल अपनी कोई राय बनाकर किसी एक पार्टी या उम्मीदवार को खुला समर्थन देगा। अगर भारत में ऐसा हो भी जाए तो उसका कोई अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ेगा। क्योंकि अमेरिकी मीडिया जहाँ जनमत निर्माण में प्रभावी भूमिका निभाता है, वहीं भारतीय मीडिया का राग अक्सर जनता के मनोभावों से अलग होता है।

दरअसल स्वस्थ पत्रकारिता का विकास स्वस्थ जनतंत्र में ही हो सकता है। इस बात को मैं पहले भी कह चुका हूं। स्वस्थ जनतंत्र तब कायम होगा जब जनतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत होने का मौका मिलेगा। इसे अपना दुर्भाग्य मानना चाहिए कि पिछले तीन दशक में इस भावना के विपरीत जनतांत्रिक संस्थाओं को क्षीण करने का ही काम हुआ है। नेहरू युग में इस दिशा में जितने सकारात्मक प्रयत्न, हुए, परवर्ती काल में उन पर पानी फेर दिया गया। यह काम सिर्फ निर्वाचित जनप्रतिनिधियों ने किया हो, ऐसा नहीं है। सच तो यह है कि पिछले तीस सालों में भारत में जनतंत्र के नाम पर कुलीनतंत्र स्थापित करने का षड़यंत्र किया गया है, और इसमें उन वर्गों ने भी बढ़-चढक़र हिस्सेदारी निभाई है जो अपने आपको बुध्दिजीवी कह लाने में फख्र महसूस करते हैं। यह हमें पता है कि भारतीय समाज एक श्रेणीबध्द समाज है। इसमें विभिन्न वर्ग खाँचों में कैद कर रख दिए गए हैं। इस सामाजिक संरचना में जो लोग धन, धर्म, जाति और बाहुबल के कारण श्रेष्ठ कहे जाते हैं उन्हें यह नागवार गुजरता है कि जो उनसे नीचे हैं वे उनके साथ बराबरी की कोशिश या दावा करें। दूसरे शब्दों में जनतांत्रिक प्रक्रिया की सबसे अहम् शर्त याने वयस्क मताधिकार पर उन्हें एतराज है। ऐसे महानुभाव इसीलिए वोट डालने नहीं जाते क्योंकि उन्हें कथित रूप से ''छोटे'' लोगों के साथ पंक्ति में खड़े रहना गवारा नहीं होता।

यह भी स्पष्ट है कि मीडिया के जो स्वामी हैं वे उसी श्रेष्ठि वर्ग से आते हैं। इसमें कभी राजनेता अखबार निकालने लगते हैं तो कभी अखबार के मालिक राजनेता बन जाते हैं। ऐसे चतुर पत्रकार भी होते हैं जो राजनीतिक संबंधों का लाभ उठाकर राजनीति या व्यापार में ठेकेदारी करने लगते हैं। पिछले दो-तीन चुनावों में मीडिया संस्थानों ने व पत्रकारों ने जिस तरह की बेशर्म सौदेबाजी की है, उससे मीडिया की साख पर गहरा बट्टा लगा है। इस सच्चाई के बरक्स मीडिया जब निष्पक्ष होने का दावा करता है या मतदाताओं से मताधिकार का प्रयोग करने की अपील करता है तो यह सिर्फ एक आडंबर होता है। इसे समाज के साथ किया गया क्रूर मजाक ही कहा जाएगा।



 

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