हमारे प्रधानमंत्री खामोश किस्म के व्यक्ति हैं। उनकी पृष्ठभूमि को देखते हुए इसे स्वाभाविक ही माना जाएगा।
अचरज की बात यह है राजनीति में सक्रिय होने के बाद पांच साल वित्तमंत्री तथा सात साल प्रधानमंत्री पद पर काम करने के बावजूद उनकी इस स्वभावगत विशेषता में कोई परिवर्तन नहीं आया है। वे शायद इस कहावत में विश्वास रखते हैं कि ''मौन ही स्वर्णिम है'' (साइलेंस इंज गोल्डन)। उनकी इस विशेषता को लेकर ही एक चुटकुला इधर प्रचलित हो गया है कि वे जब दांतों के डॉक्टर के पास गए तो वहां भी बहुत समझाने-बुझाने के बाद मुंह खोलने को राजी हुए। ऐसा मौन धारण करने के अपने लाभ हो सकते हैं, लेकिन आमफहम भाषा में इसे घुन्नापन कहकर इसकी आलोचना की जाती है।
कांग्रेस पार्टी के सामने यह एक बड़ी मुश्किल है। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के जोशीले भाषण सिर्फ चुनावी सभाओं में ही सुनने मिलते हैं, बाकी समय वे चुप्पी अख्तियार किए रहती हैं। अमेठी, रायबरेली के मतदाता भले ही उनसे मिल पाते हों, बाकी का तो उनसे मिलना असंभव ही होता है। वे क्या सोच रही हैं, इसका अनुमान जनार्दन द्विवेदी अथवा टॉम वडक्कन के वक्तव्यों से ही हो पाता है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह चुप रहने में बराबरी से उनका साथ देते हैं: वे क्या सोचते हैं इसके लिए अमूमन कपिल सिब्बल अथवा पी. चिदम्बरम के बयानों पर निर्भर रहना पड़ता है। कांग्रेस की इस त्रिमूर्ति के तीसरे देवता राहुल गांधी हैं। वे यहां-वहां सक्रिय नजर आते हैं, लेकिन नीतिगत एवं गंभीर प्रश्नों पर उनकी क्या राय है यह कभी पता नहीं चलता। दिग्विजय सिंह जो कह दें उसे ही राहुल वाणी मानना पड़ता है।
ऐसे में आम जनता तो क्या स्वयं कांग्रेसी भी नहीं जान पाते कि उनकी पार्टी के भीतर क्या चल रहा है। पिछले सात साल में लोकमहत्व के दर्जनों मुद्दे सामने आए, लेकिन कांग्रेस कभी भी अपना पक्ष जनता के सामने मजबूती के साथ नहीं रख पाई। कांग्रेस के बड़े नेताओं को सुरक्षा घेरे में रहना पड़ता है, जिसके कारण आम जनता से उनका संपर्क बहुत सीमित होता है। यह स्थिति एक हद तक समझ में आती है, लेकिन शासन और जनता के बीच संवाद का कोई नियमित साधन न हो तो यह स्थिति न तो नेताओं के लिए अच्छी है, न पार्टी के लिए और न लोकतंत्र के लिए।
आज नेहरू युग की चर्चा करना शायद मुनासिब न हो क्योंकि जमाना बदल गया है क्योंकि संदर्भ के तौर पर उस समय को थोड़ा याद कर लेना गलत नहीं होगा। पंडित नेहरू आम जनता के लिए सदैव उपलब्ध ही नहीं थे, बल्कि जनसमुदाय के बीच पहुंचकर मानो वे संजीवनी पाते थे। पंडित जी की पत्रकार वार्ता हर माह हुआ करती थी, जिसके माध्यम से देश की जनता के साथ उनका निरंतर संवाद बने रहता था। आज उस दौर के मुकाबले अखबारों की संख्या कई गुणा बढ़ गई है। दसियों न्यूज चैनल भी आ गए हैं। इस माहौल में हर माह पत्रकार वार्ता करना अव्यवहारिक हो सकता है, लेकिन पत्रकारों से मिला ही न जाए, यह कौन सी बात हुई। इंदिरा गांधी अपने पिता की तरह उदार नहीं थीं, लेकिन आम जनता से उन्होंने भी कभी दूरी बनाकर नहीं रखीं। इंदिरा जी की पत्रवार्ताएं यद्यपि नियमित नहीं होती थीं, लेकिन पत्रकारों से उनका मिलना अत्यंत सुलभ था। वे चाहे देश के दौरे पर हों, चाहे दिल्ली में, एक साधारण सी सूचना पर पत्रकारों को उनसे भेंट का समय मिल जाता था। आपातकाल के दौरान अवश्य दूरी आ गई थी, लेकिन 1980 में सत्ता में लौटते साथ उन्होंने टूटे तार फिर जोड़ने की पहल की थी।
अटल बिहारी वाजपेयी ने भी एक सच्चे जननेता के रूप में आम जनता और प्रेस दोनों के साथ संवाद बनाए रखा। इन्द्रकुमार गुजराल के मीडिया के साथ हमेशा अच्छे संबंध रहे। यह रोचक तथ्य है कि दिल्ली के अधिकतर वरिष्ठ पत्रकारों का वाजपेयीजी और गुजराल साहब दोनों के साथ अनौपचारिक स्तर पर भी सम्पर्क बना रहा। वीपी सिंह और चंद्रशेखर ने भी प्रेस के साथ नियमित संपर्कों का ध्यान रखा। यह जानकर पाठकों को आश्चर्य हो सकता है कि एच.डी. देवेगौड़ा जब प्रधानमंत्री बने तब उन्होंने भी अंग्रेजी और कन्नड़ ही नहीं, तमाम भारतीय भाषाओं के पत्रकारों के साथ संवाद स्थापित किया। उन्होंने अपने कार्यकाल के प्रारंभ में भी हिन्दी तथा अन्य भाषाओं के संपादकों को आमंत्रित कर उनसे खुली चर्चा की पहल की।
सन् 2004 की फरवरी में जब एनडीए का शासन था, श्रीमती सोनिया गांधी ने हिन्दी के संपादकों को रात्रि भोज पर आमंत्रित किया था। संभवत: अन्य भाषाओं के पत्रकारों से भी वे बाद में मिली होंगी. हम पन्द्रह-सोलह पत्रकार, जो सोनियाजी से मिले थे, उनसे किसी हद तक प्रभावित होकर ही लौटे थे। उस रात्रि भोज में विभिन्न प्रदेशों के कांग्रेस के प्रमुख नेता भी शामिल थे, जो मेहमानों का ख्याल रख रहे थे। सोनिया गांधी खुद सारी टेबलों पर जाकर पत्रकारों के साथ पन्द्रह-पन्द्रह मिनट तक बात कर रहीं थीं। इसके कुछ माह बाद ही आम चुनाव हुए, सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए ने चुनाव जीता, डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने और इसके बाद मानो कांग्रेस पार्टी को मीडिया से परहेज हो गया।
इधर जब भ्रष्टाचार के नैतिक मूल्यों पर कांग्रेस पर चौतरफा आक्रमण हो रहे हैं तब पार्टी को एक बार फिर प्रेस की याद आई है। जैसी कि हमें जानकारी है, कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक मंगलवार 28 जून को हुई, उसमें तय किया गया कि प्रधानमंत्री को प्रेस से मिलना चाहिए और आनन-फानन अगले ही दिन याने 29 जून को प्रधानमंत्री ने पांच संपादकों को चर्चा के लिए आमंत्रित कर लिया। इसकी खूब चर्चा हो रही है, लेकिन भारतीय राजनीति में जैसे प्रहसन इन दिनों चल रहे हैं, मुझे यह सीमित पत्रवार्ता भी उसी का एक और मंचन प्रतीत होता है। इसके पहले प्रधानमंत्री की दो वृहद पत्रवार्ताएं हुईं। दोनों में उन्हें जो कहना था वह कहा और पत्रकारों के सवालों को वे चतुराई के साथ टाल गए। सच यह भी है कि उनसे जो सवाल पूछे गए वे अधिकतर बेसिर-पैर के ही थे। कुल मिलाकर ऐसा लगा कि दोनों पत्रवार्ताएं आधे-अधूरे मन से आयोजित की गई थीं। पार्टी के निर्देश पर प्रधानमंत्री ने पत्रकारों से भेंटकर जो सिलसिला प्रारंभ किया है, वह भी कोई उत्साह जागृत नहीं करता।
एक तो यही समझ नहीं आया कि जिन पांच जनों को आमंत्रित किया गया, उसका आधार क्या था? क्या इसलिए कि वे कांग्रेस पार्टी के करीबी हैं, या प्रधानमंत्री के या फिर उनके प्रेस सलाहकार हरीश खरे के? फिर इन पत्रकारों के बाहर आने के बाद मीडिया से चर्चा क्यों करनी चाहिए? एक पत्रकार को सिध्दांतत: अपनी बात अपने अखबार के माध्यम से ही करना चाहिए। इस प्रसंग में वे चाहे-अनचाहे कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता बन गए। प्रधानमंत्री के साथ चर्चा का जो विवरण प्रकाशित हुआ, उसके कुछ बिन्दुओं पर प्रधानमंत्री को नए सिरे से आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है। ऐसा क्यों कर हुआ, इसका उत्तर पत्रकारों को ही देना होगा। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय में मीडिया से संवाद करने के लिए कोई सुविचारित नीति या योजना नहीं है। क्या इसके लिए स्वयं डॉ. सिंह का अन्तर्मुखी व्यक्तित्व जिम्मेदार नहीं है?
7 जुलाई 2011को देशबंधु में प्रकाशित
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