Wednesday, 23 May 2012

यात्रा वृत्तांत : बृजभूमि में रीयल एस्टेट




दूर-दूर तक फैली हरियाली की गोद में इठलाते खिलखिलाते सरसों के फूल। बीच-बीच में यमुना की शाखा नहरों में बहता ठंडा पानी-खेतों को सींचता हुआ। पेड़ों पर और बिजली के तारों पर बैठे झुंड के झुंड में बैठे पक्षी। किसी गांव में अनायास दिख जाते मोर। जगह-जगह खेतों में विचरण कर रहे प्रवासी पक्षी। 2008 के लगभग अंत में बृजभूमि की यह एक छोटी सी झलक है। इसके साथ सवाल कि अगली बार आएंगे तो क्या सब कुछ ऐसा ही बचा हुआ होगा! जनसंख्या बढ़ रही है। जरूरतें बढ़ रही हैं। इसलिए विकास भी हो रहा है। ऐसा विकास जो हरियाली की कीमत पर हासिल किया गया है। ऐसा विकास जिसमें अनंत कथाओं में वर्णित राष्ट्रीय पक्षी मोर लुप्त हो रहा है। ऐसा विकास जिसमें पक्षियों के दर्शन करने चिड़ियाघर ही जाना होगा। ऐसा विकास जिसमें साइबेरिया के पक्षी पासपोर्ट और वीसा उपलब्ध होने के बावजूद यमुना की लहरों के साथ नाचने के लिए नहीं लौटेंगे। 

दिल्ली से लेकर आगरा तक ढाई सौ किलोमीटर की पट्टी अब जैसे किसी शहर की लंबी सड़क बनकर रह गई है। वैसे तो यह राजमार्ग है, जिस पर कभी देवानंद ने अपनी पत्नी कल्पना कार्तिक के साथ की गई आखिरी फिल्म 'नौ दो ग्यारह' की शूटिंग की थी। यह वही सड़क है जिस पर चलकर 'अब दिल्ली दूर नहीं' के बाल कलाकार ने चाचा नेहरू के सामने फरियाद रखने दिल्ली तक का सफर किया था। इन पुरानी फिल्मों का फुटेज देखें तो इस पथ पर हुए परिवर्तन का अनुमान लग जाएगा। दिल्ली से मथुरा दो सौ किलोमीटर और आगरा ढाई सौ किलोमीटर है। फोरलेन राजमार्ग पर बताया गया था कि आगरा पहुंचने में चार घंटे का समय लगेगा। दिल्ली शहर पार करने में एक घंटे से ज्यादा लगा। फिर मथुरा बाईपास आधा घंटे से ज्यादा और आगरे में शहर के हृदयस्थल तक पहुंचने में फिर एक घंटा। कुल मिलाकर छह घंटे का थका देने वाला सफर। हमारे पास अपनी बढ़ती हुई जनसंख्या और उसी रफ्तार में बढ़ती वाहन संख्या के अलावा गर्व करने के लिए और क्या बचा है, यह विचारणीय है।

सन् 2000 की जून में मैं आखिरी बार आगरा गया था। उस समय ताजमहल की जो दुर्दशा देखी थी उस पर एक लंबी कविता भी लिखी थी। इस बार आगरा और ताजमहल दोनों को देखकर पिछली बार से कहीं ज्यादा क्षोभ हुआ। भारतवासियों में पर्यटन का शौक बढ़ रहा है। यह तो अच्छी बात है लेकिन पर्यटन का कोई सलीका, कोई तहजीब होती है, इस बारे में हम बिलकुल उदासीन हैं। हम जानते हैं कि मथुरा रिफायनरी के काले धुएं से ताजमहल को बचाने के लिए उस पर रासायनिक लेप किया गया है। लेकिन सैलानियों की जो बेहिसाब आवाजाही है और जैसा शोर-शराबा है उसे देखकर तो डर लगता है कि इसी शोर से घबराकर ही ताजमहल किसी दिन दम तोड़ देगा। यहां आने वाले 99 प्रतिशत लोग ताजमहल देखने नहीं बल्कि उसके सामने खड़े होकर फोटो खिंचवाने ही आते हैं। उन्होंने सुन रखा है कि ताजमहल दुनिया के महानतम आश्चर्य में से एक है। वे उसे देखकर अपना जीवन धन्य करना चाहते हैं, लेकिन इस ऐतिहासिक धरोहर में वास्तुशिल्प का जो अद्वितीय सौंदर्य है उसे समझने का वक्त किसी के पास नहीं होता और न ही इच्छा। यद्यपि परिसर के भीतर साफ-सफाई का बहुत माकूल इंतजाम है लेकिन खाली बोतल और गुटके के पाउच आदि यहां-वहां फेंकने में सैलानियों को तनिक भी संकोच नहीं होता।

आगरा से लौटकर हम मथुरा पहुंचे तो उस दिन विवाह का कोई बड़ा मुहूर्त था। कहीं भी ठहरने की जगह नहीं मिली। रात्रि विश्राम के लिए स्थान ढूंढते-ढूंढते हम वृंदावन पहुंच गए। वहां एक नए-नए बने होटल में कमरे मिल गए। मेरे लिए यह भी एक आश्चर्य था। वृंदावन में भी होटल हो सकता है, यह मैंने नहीं सोचा था। इस यात्रा में मथुरा न देख पाने का पछतावा तो रहा लेकिन वृंदावन में उसकी कसर पूरी करने की कोशिश की। मथुरा और वृंदावन के बीच आठ किलोमीटर की दूरी है। अपने बचपन में हम तांगे से यह यात्रा करते थे। लगभग आधी दूरी पर एक ऐसा स्थान भी था जहां लुटेरे ताक में रहते थे। लेकिन अब यह गुंजाइश नहीं है। सड़क के दोनों तरफ आवासीय कॉलोनियां, अस्पताल, मंदिर और आश्रम बन गए हैं। मुगल जमाने से चली आ रही गोचर भूमि भी इस रास्ते पर थी। वह भी शायद लुप्त हो चुकी है। वृंदावन में घूमते हुए देखा कि बस्ती के चारों ओर नई-नई कॉलोनियां बन रही हैं और नए-नए आश्रम। धर्म के साथ-साथ रीयल एस्टेट अब शायद बृजभूमि का बड़ा व्यापार बन गया है। वृंदावन में चार-पांच पुराने प्रसिध्द मंदिर हैं। इसमें बांकेबिहारी मंदिर की शोभा सर्वोत्तम है। वहीं श्रध्दालुओं का तांता भी ज्यादा लगता है। लेकिन लगभग उतने ही पुराने राधावल्लभ मंदिर का वातावरण पहले की अपेक्षा कुछ फीका लगा। सेवाकुंज के बारे में किंवदंती है कि वहां आधी रात राधा-कृष्ण रास रचाने आते हैं लेकिन इस जगह अब वृक्षों की जगह कुछ झाडियां ही कुंज का अहसास दिलाती हैं। लखनऊ के एक साह परिवार द्वारा बनवाया गया शाहजी का मंदिर अस्सी-नब्बे साल पहले ही बना है। इस मंदिर में भारतीय शिल्प के साथ-साथ अंग्रेजी चित्रकला और स्थापत्य का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। वृंदावन में पिछले तीस-पैंतीस साल में नए-नए मंदिर बने हैं जो भक्ति भावना के कम और कौतूहल के केंद्र ज्यादा हैं। शाहजी के मंदिर से इस परंपरा की शुरुआत मानी जा सकती है। पुराने मंदिरों में रंगजी का मंदिर अपने भव्य परकोटे, विशाल प्रांगण तथा सोने का पत्थर जड़े गर्व स्तंभ के कारण सहज आकर्षित करता है। मैंने एक रोचक तथ्य नोट किया कि रंगजी के मंदिर में ज्यादातर दक्षिण भारतीय आते हैं तो बिहारी जी के मंदिर में उत्तर भारतीय। अधिकतर बंगाली भक्त चैतन्य महाप्रभु के गौड़ीय मठ में जाते हैं और कहना न होगा कि विदेशी नए-नए बने इस्कॉन मंदिर में। सब अपने-अपने सम्प्रदाय और अपनी-अपनी गुरु परंपरा का पालन करते नजर आते हैं। इस सबको अगर कोई जोड़ने वाली बात है तो वह वृंदावन की संकरी गलियों में छोटी-बड़ी दुकानों पर मिलने वाले भांति-भांति के सुस्वादी व्यंजन।
मावे और छेने की मिठाईयां तथा पूरी-कचौरी का स्वाद लेते हुए सारे भक्त एक ही रसधारा में जुट जाते हैं।


इस संक्षिप्त यात्रा में जतीपुरा के दर्शन करना हमारे लिए जैसे अनिवार्य था। गिरिराज पर्वत की तलहटी में जहां मुख्य पूजा होती है उस ''मुखारविंद'' नामक स्थान पर ही मेरी दादी का स्वर्गवास हुआ था। यहां से प्रारंभ होने वाली गोवर्धन पर्वत की 21 किलोमीटर की परिक्रमा की कृष्णभक्तों के बीच बड़ी मान्यता है। इस यात्रा पथ पर गोवर्धन, श्यामकुंंड, राधाकुंड, मानसीगंगा, आदि प्राचीन स्थल है। लेकिन इस बार जतीपुरा की यात्रा करना जैसे एक यंत्रणा से गुजरना था। मुखारविंद पर लाखों का चढ़ावा आता है, उसे पंडे रख लेते हैं। धनिक समाज ने अपने-अपने सुविधा सम्पन्न विश्रामगृह निर्मित कर लिए हैं लेकिन छोटे से गांव में गंदगी का जो विकराल स्वरूप है उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं है। शायद इसके लिए कृष्ण को ही अवतार लेकर सफाई अभियान चलाना पड़ेगा। क्या तभी बृजभूमि बच पाएगी?



 6 फ़रवरी 2009 को देशबंधु में प्रकाशित 

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