माओवाद बनाम कॉर्पोरेट पूंजी
देश जिस दिन संसद की साठवीं सालगिरह मना रहा था उसी दिन बस्तर में माओवादियों ने तीन अलग-अलग घटनाओं में नौ लोगों को मौत के घाट उतार दिया। इसके पूर्व जिस रोज अपहृत कलेक्टर मेनन की रिहाई होने-होने की थी, उस रोज भी नक्सलियों ने सरेबाजार तीन जनों की हत्या कर दी थी। इस बीच विधायक भीमा मंडावी पर हमले की वारदात भी हुई। इस घटनाक्रम से क्या नतीजा निकाला जाए? प्रथम दृष्टि में ऐसा लगता है व सहज बुध्दि भी यही कहती है कि नक्सलियों की इच्छा शांति स्थापित होने देने में नहीं है बल्कि उनका इरादा बस्तर में आतंक और अशांति का माहौल कायम रखने का ही है। इसका आगे यह अर्थ निकलता है कि सरकार और पुलिस बलों की जो घोषित मान्यता है वही सच है कि माओवादियों की निगाह दिल्ली पर कब्जा करने की है याने वे भारत की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को पूरी तरह से खत्म कर देना चाहते हैं। अगर ऐसा है तो फिर बस्तर ही क्यों, माओवाद प्रभावित सारे क्षेत्रों को पुलिस व अर्ध्दसैनिक बलों को हटाकर सेना के हवाले कर देना चाहिए!
बहुत से लोगों को यह समाधान आकर्षक प्रतीत हो सकता है। जब स्वयं प्रधानमंत्री तक माओवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा निरूपित कर चुके हैं, तब ऐसी घटनाओं के चलते अगर किसी दिन बस्तर और अन्य क्षेत्रों में सेना तैनात कर दी भी जाए तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं होगी। सवाल उठता है कि क्या माओवादी भी ऐसा ही चाहते हैं! कलेक्टर मेनन की रिहाई के बाद बातचीत का जो रास्ता खुला है और जब समझौते के तहत बैठकों का सिलसिला जारी है, तब ऐसी हिंसक घटनाओं को अंजाम देकर नक्सली क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या वे चाहते हैं कि सरकार अपना रुख कड़ा कर ले और समझौता बीच में ही टूट जाए? इससे माओवादियों को क्या हासिल होगा? यहां हम उन प्रबुध्दजनों के बारे में भी सोच रहे हैं जो एक वृहत्तर सामाजिक प्रश्नों की पृष्ठभूमि में माओवादी आन्दोलन पर सैध्दांतिक दृष्टिकोण से विचार करते आए हैं। माओवादी उन्हें एक तरफ तो अपनी ओर से वार्ताकार बनाते हैं और दूसरी तरफ हिंसा का सिलसिला जारी रखते हुए इन्हीं प्रबुध्दजनों को एक तरह से अपमानित भी करते हैं। तो क्या ऐसा माना जाए कि चारु मजूमदार, कनु सान्याल, नागभूषण पटनायक और कोण्डापल्ली सीतारम्मैया की सैध्दांतिकी से बहुत दूर निकल आए आज के माओवादी अब पूरी तरह से अपना वैचारिक- बौध्दिक आधार खो चुके हैं।
मैंने ऊपर कुछ प्रश्न उठाए हैं और वे एक ही दिशा में संकेत करते हैं। मेरा मानना है कि कारपोरेट पूंजी का एक गहरा षड़यंत्र बस्तर सहित देश के उन तमाम हिस्सों में चल रहा है जो प्राकृतिक संपदा के धनी हैं। इन इलाकों से आदिवासी बेदखल होंगे तभी संसाधनों पर पूरी तरह कब्जा करने का उनका मंसूबा पूरा होगा। माओवादी ही नहीं, राजनीतिक दल भी पूंजी के हाथों कठपुतली बनकर खेल रहे हैं। इसके अलावा, यह मैंने पहले भी लिखा है कि हथियारों के सौदागरों की दुकानें तभी चल पाएंगी जब दुनिया में हिंसक उपद्रव होते रहेंगे। आतंकवादी हों या माओवादी या फिर उनसे लड़ने वाले सशस्त्र बल, सबको हथियारों की जरूरत होती है और यह एक भीषण सच्चाई है कि विश्व में सैन्य सामग्री तथा सुरक्षा उपकरणों का व्यापार सबसे यादा आकर्षक और मुनाफा देने वाले व्यापारों में से एक है।
हमने चूंकि माओवादियों को नहीं चुना है इसलिए हम उन्हें तो कोई सलाह नहीं दे सकते; लेकिन हमने जिन्हें सरकार चलाने के लिए चुना है उनसे यह जरूर कहना चाहेंगे कि यदि इस देश में संसदीय जनतंत्र की प्रतिष्ठा और अस्तित्व कायम रखना है तो उन्हें माओवाद के मसले पर अपने सारे पूर्वाग्रह छोड़कर नए सिरे से विचार करना चाहिए। यह निर्वाचित सरकार की जिम्मेदारी है कि वह न सिर्फ माओवादी हिंसा से निरीह -निर्दोष जनता की रक्षा करे, बल्कि संविधान की भावना के अनुकूल ऐसा वातावरण भी निर्मित करे जिसमें आदिवासियों और वंचित समुदायों का आर्थिक, शारीरिक और मानसिक शोषण रुके और उन्हें आगे बढ़ने के लिए बराबरी के अवसर मिल सकें। इसे ध्यान में रख बस्तर के संदर्भ में मैं कहना चाहूंगा कि वहां प्रशासन के हर स्तर पर और हर विभाग में संवेदनशील, कर्मठ व ईमानदार अफसर कर्मी तैनात किए जायें, ताकि विकास कार्यों को वांछित गति मिल सके। बस्तर में निजी कंपनियों की खनिज लीजें रद्द की जाएं। वहां पांचवीं अनुसूची के प्रावधान सख्ती से लागू किए जाएं। छठवीं अनुसूची लागू करने पर गंभीरतापूर्वक विचार किए जाए और कोई भी विकास कार्यक्रम आदिवासी समाज की अनुमति-सहमति से ही हाथ में लिया जाए। प्रदेश को कारपोरेट पूंजी - आधारित नहीं, बल्कि जनविश्वास आधारित विकास की जरूरत है।
15 मई 2012 को देशबंधु में प्रकाशित
देश जिस दिन संसद की साठवीं सालगिरह मना रहा था उसी दिन बस्तर में माओवादियों ने तीन अलग-अलग घटनाओं में नौ लोगों को मौत के घाट उतार दिया। इसके पूर्व जिस रोज अपहृत कलेक्टर मेनन की रिहाई होने-होने की थी, उस रोज भी नक्सलियों ने सरेबाजार तीन जनों की हत्या कर दी थी। इस बीच विधायक भीमा मंडावी पर हमले की वारदात भी हुई। इस घटनाक्रम से क्या नतीजा निकाला जाए? प्रथम दृष्टि में ऐसा लगता है व सहज बुध्दि भी यही कहती है कि नक्सलियों की इच्छा शांति स्थापित होने देने में नहीं है बल्कि उनका इरादा बस्तर में आतंक और अशांति का माहौल कायम रखने का ही है। इसका आगे यह अर्थ निकलता है कि सरकार और पुलिस बलों की जो घोषित मान्यता है वही सच है कि माओवादियों की निगाह दिल्ली पर कब्जा करने की है याने वे भारत की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को पूरी तरह से खत्म कर देना चाहते हैं। अगर ऐसा है तो फिर बस्तर ही क्यों, माओवाद प्रभावित सारे क्षेत्रों को पुलिस व अर्ध्दसैनिक बलों को हटाकर सेना के हवाले कर देना चाहिए!
बहुत से लोगों को यह समाधान आकर्षक प्रतीत हो सकता है। जब स्वयं प्रधानमंत्री तक माओवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा निरूपित कर चुके हैं, तब ऐसी घटनाओं के चलते अगर किसी दिन बस्तर और अन्य क्षेत्रों में सेना तैनात कर दी भी जाए तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं होगी। सवाल उठता है कि क्या माओवादी भी ऐसा ही चाहते हैं! कलेक्टर मेनन की रिहाई के बाद बातचीत का जो रास्ता खुला है और जब समझौते के तहत बैठकों का सिलसिला जारी है, तब ऐसी हिंसक घटनाओं को अंजाम देकर नक्सली क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या वे चाहते हैं कि सरकार अपना रुख कड़ा कर ले और समझौता बीच में ही टूट जाए? इससे माओवादियों को क्या हासिल होगा? यहां हम उन प्रबुध्दजनों के बारे में भी सोच रहे हैं जो एक वृहत्तर सामाजिक प्रश्नों की पृष्ठभूमि में माओवादी आन्दोलन पर सैध्दांतिक दृष्टिकोण से विचार करते आए हैं। माओवादी उन्हें एक तरफ तो अपनी ओर से वार्ताकार बनाते हैं और दूसरी तरफ हिंसा का सिलसिला जारी रखते हुए इन्हीं प्रबुध्दजनों को एक तरह से अपमानित भी करते हैं। तो क्या ऐसा माना जाए कि चारु मजूमदार, कनु सान्याल, नागभूषण पटनायक और कोण्डापल्ली सीतारम्मैया की सैध्दांतिकी से बहुत दूर निकल आए आज के माओवादी अब पूरी तरह से अपना वैचारिक- बौध्दिक आधार खो चुके हैं।
मैंने ऊपर कुछ प्रश्न उठाए हैं और वे एक ही दिशा में संकेत करते हैं। मेरा मानना है कि कारपोरेट पूंजी का एक गहरा षड़यंत्र बस्तर सहित देश के उन तमाम हिस्सों में चल रहा है जो प्राकृतिक संपदा के धनी हैं। इन इलाकों से आदिवासी बेदखल होंगे तभी संसाधनों पर पूरी तरह कब्जा करने का उनका मंसूबा पूरा होगा। माओवादी ही नहीं, राजनीतिक दल भी पूंजी के हाथों कठपुतली बनकर खेल रहे हैं। इसके अलावा, यह मैंने पहले भी लिखा है कि हथियारों के सौदागरों की दुकानें तभी चल पाएंगी जब दुनिया में हिंसक उपद्रव होते रहेंगे। आतंकवादी हों या माओवादी या फिर उनसे लड़ने वाले सशस्त्र बल, सबको हथियारों की जरूरत होती है और यह एक भीषण सच्चाई है कि विश्व में सैन्य सामग्री तथा सुरक्षा उपकरणों का व्यापार सबसे यादा आकर्षक और मुनाफा देने वाले व्यापारों में से एक है।
हमने चूंकि माओवादियों को नहीं चुना है इसलिए हम उन्हें तो कोई सलाह नहीं दे सकते; लेकिन हमने जिन्हें सरकार चलाने के लिए चुना है उनसे यह जरूर कहना चाहेंगे कि यदि इस देश में संसदीय जनतंत्र की प्रतिष्ठा और अस्तित्व कायम रखना है तो उन्हें माओवाद के मसले पर अपने सारे पूर्वाग्रह छोड़कर नए सिरे से विचार करना चाहिए। यह निर्वाचित सरकार की जिम्मेदारी है कि वह न सिर्फ माओवादी हिंसा से निरीह -निर्दोष जनता की रक्षा करे, बल्कि संविधान की भावना के अनुकूल ऐसा वातावरण भी निर्मित करे जिसमें आदिवासियों और वंचित समुदायों का आर्थिक, शारीरिक और मानसिक शोषण रुके और उन्हें आगे बढ़ने के लिए बराबरी के अवसर मिल सकें। इसे ध्यान में रख बस्तर के संदर्भ में मैं कहना चाहूंगा कि वहां प्रशासन के हर स्तर पर और हर विभाग में संवेदनशील, कर्मठ व ईमानदार अफसर कर्मी तैनात किए जायें, ताकि विकास कार्यों को वांछित गति मिल सके। बस्तर में निजी कंपनियों की खनिज लीजें रद्द की जाएं। वहां पांचवीं अनुसूची के प्रावधान सख्ती से लागू किए जाएं। छठवीं अनुसूची लागू करने पर गंभीरतापूर्वक विचार किए जाए और कोई भी विकास कार्यक्रम आदिवासी समाज की अनुमति-सहमति से ही हाथ में लिया जाए। प्रदेश को कारपोरेट पूंजी - आधारित नहीं, बल्कि जनविश्वास आधारित विकास की जरूरत है।
15 मई 2012 को देशबंधु में प्रकाशित
जी सुरजन जी आपने बिलकुल सही पक्ष रखा है वाकई ये अपने बौद्धिक सिद्धात्न से हट गए गए है .....इस मल्टी नेशनल के महाजाल से वाकई बस्तर समेत अन्य प्रभावित इलाको भी मुक्त कराना होगा
ReplyDeleteआ. ललित जी,
ReplyDeleteकल पूरा दिन लगाकर माओवाद से संबन्धित शृंखला पूरी पढ़ा डाली। छतीसगढ़ के वे लोग जो अपनी मिट्टी से दूर हैं, उनके लिए आपका ब्लॉग वरदान है।
नक्सलवाद के संबंध में आपके विचार एवं सुझाव बहुत काम के हैं। पर अब अखबारों और टीवी से जो और जितना पता चलता है उससे तो निराशा ही हाथ आते है। जब सरकार और समाज पर आप जैसे वरिष्ठजनों की बात का भी असर नहीं होता तो दुःख ही होता है।
-हितेन्द्र