Tuesday 22 May 2012

ललित कलाएं और मीडिया-2


सामंतों और श्रेष्ठियों के स्थान पर अब कारपोरेट घराने मीडिया के बड़े हिस्से को भी नियंत्रित और संचालित करते हैं। इस नए श्रेष्ठि वर्ग में उस उदार दृष्टि का अभाव बड़ी हद तक परिलक्षित होता है, जो पहले के  श्रेष्ठि वर्ग में दिख जाती थी। यद्यपि कारपोरेट घरानों द्वारा कलाओं के उन्नयन और संरक्षण के प्रति सदाशय का दावा किया जाता है, लेकिन वास्तविकता यही है कि उन्होंने अब तक जो भी किया है, वह बहुत कम है। इनके द्वारा जो मीडिया तंत्र संचालित होता है, उसमें भी बाज़ार को बढ़ावा देने पर पूरा जोर होता है, न कि कला के माध्यम से निजी और सामाजिक जीवन को सरस बनाने का। टीवी पर प्रसारित सीरियल, रीयल्टी शो, गेम शो इत्यादि सभी कार्यक्रम इसी सोच का प्रतिबिंब है। यदि दूरदर्शन और आकाशवाणी को छोड़ दें तो टीवी और रेडियो दोनों में ललित कलाओं के लिए जगह बनाई ही नहीं  गई है।

इस निराशाजनक स्थिति के बरक्स एक ऐसा वर्ग भी है जो इसमें नई संभावनाएं तलाश कर रहा है। ऐसी सोच रखने वालों का मानना है कि मीडिया का लोकव्यापीकरण और परिणामस्वरूप जनतंत्रीकरण का रास्ता प्रशस्त हो रहा है। आज मीडिया में संस्कृति के विभिन्न आयामों की प्रस्तुति जिस रूप में हो रही है, उसे ये अध्येता ''पापुलर-कल्चर'' की संज्ञा देते हुए और किसी हद तक इसे लोकसंस्कृति के समकक्ष लाकर खड़ा करने का प्रयत्न करते हैं। संभव है कि उनका आशावादी दृष्टिकोण ही सही हो, लेकिन मैं उनसे अपने-आपको असहमत पाता हूं।

मेरा मानना है कि अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के लिए जो शैलियां इन दिनों अपनाई जा रही हैं वे देशज नहीं हैं और उनमें एक नए परिवेश में सहज ग्राह्य हो जाने के लिए अनिवार्य तत्वों की कमी है। भारत की उदारवादी सांस्कृतिक परंपरा में हमने बाहर से ग्रहण करने में कभी कोई संकोच नहीं किया है, लेकिन प्रचार माध्यमों का सहारा लेकर जो हमें परोसा जा रहा है वह हमारी मिट्टी-पानी के अनुकूल नहीं जान पड़ता। भाषा प्रयोग हो या भवन निर्माण, हर आयाम व हर विधा पर यह बात लागू होती है और ललित कलाओं के संदर्भ में भी इस वैषम्य को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

जो विद्वान ''पापुलर कल्चर'' को लोक संस्कृति का पर्याय मानकर स्थापनाएं देते हैं वे इस तथ्य को अनदेखा कर देते हैं कि लोक संस्कृति का जन्म और विकास स्वस्फूर्त होता है। उसके लिए किसी प्रायोजक की आवश्यकता नहीं होती। लोक संस्कृति ही विकास की एक अवस्था पर पहुंच कर रूढ़ होते हुए शास्त्रीय स्वरूप ले लेती है, तब उसका एक अनुशासन बन जाता है। संगीत, नृत्य, चित्रकला इन सब पर यह बात लागू होती है। लोक से विशेष की प्रक्रिया में जनाधार सिमट जाने के बाद ही संरक्षण की आवश्यकता पड़ती है। उस समय कला, चौपाल और खुले मंच से सभागारों और सभाकक्षों में चली जाती है। यह एक सर्वव्यापी, समयसिध्द सच्चाई है।

दूसरी ओर कथित ''पापुलर कल्चर'' तो पहले से ही प्रायोजित हैं। टीवी, एफएम रेडियो, पेज थ्री आदि माध्यमों से ललित कलाओं के नाम पर होने वाली प्रस्तुतियाँ कार्पोरेट घराने सीधे या विज्ञापनों से या ईनामी योजनाओं के द्वारा प्रायोजित होती हैं। ये प्रदर्शन रातोंरात यश और समृध्दि बटोरने का लालच देते हैं जबकि हजारों में कोई एक ही ऐसे प्रायोजित मंच के बदौलत सफलता प्राप्त कर पाता है। यह सफलता भी कितनी दीर्घजीवी है, कहना मुश्किल है।

यहां आकर अब साफ-साफ देखा जा सकता है कि संस्कृति (जिसमें ललित कलाएं भी शामिल हैं) और मीडिया दोनों ही इस दौर में नवसाम्राज्यवादी शक्तियों के द्वारा ही नियमित और संचालित हो रहे हैं। इसके दुष्परिणाम सामने हैं। एक तो कला में जो स्वभावगत कल्पनाशीलता व रचनाशीलता होना चाहिए वह समाप्त हो रही है। दूसरे, कला की श्रेष्ठता इससे विपरीत ढंग से प्रभावित हो रही है। तीसरे, उदीयमान कलासाधकों के सामने अपना सर्वोत्तम देने की इच्छा और संभावना कमजोर हो रही है। एक जनतांत्रिक समाज में अलिखित सीमाओं के भीतर एक कलाकार को जो स्वतंत्रता और स्वायत्तता हासिल हो सकती है, उस पर भी उल्टा प्रभाव पड़ रहा है।

मीडिया अपने आपको जनतंत्र का प्रहरी और चौथा स्तंभ मानता है। इस नाते अवसर आने पर उससे अभिव्यक्ति की स्वाधीनता के मौलिक अधिकार के पक्ष में खड़े होने की अपेक्षा की जाती है, लेकिन विगत वर्षों में जब भी ऐसे प्रसंग आए हैं, मीडिया इस अपेक्षा पर खरा नहीं उतर सका है। उसने ऐसे मौकों पर या तो सनसनी फैलाने का काम किया है या तो चुप्पी साध ली है। ऐसे कठिन अवसरों पर टीवी पर जब चर्चाएं आयोजित होती हैं तो शायद जानबूझकर ही ऐसे व्यक्तियों को आमंत्रित किया जाता है जो विवाद  बढ़ाने का काम करे। अपनी लोकप्रियता और टीआरपी बढ़ाने का शायद यही सुनहरा नियम है!

कुल मिलाकर स्थिति यह है कि ललित कलाओं के संवर्धन और संरक्षण के लिए जो वातावरण होना चाहिए, वह अब नहीं है। मीडिया को इस दिशा में जो सकारात्मक पहल करना चाहिए उसका भी अभाव है। जैसा कि मैंने प्रारंभ में कहा- यह एक संक्रमण काल है और अनुकूल वातावरण निर्मित होने में समय लगेगा, लेकिन जो लोग इस बात को समझते हैं कि कलाएं समाज को और व्यक्तिगत जीवन को समृध्द करती हैं, उन्हें अपने प्रयत्न जारी रखने चाहिए। 

16 फरवरी 2012 को देशबंधु में प्रकाशित 


No comments:

Post a Comment