Tuesday, 22 May 2012

यह क्रिकेट नहीं अफीम है


जब रोम जल रहा था, तब नीरो बांसुरी बजा रहा था। जब भारत पर उत्तर और पश्चिम दिशाओं से विदेशी आक्रमण हो रहे थे,तब भारत के सम्राट, नरेश, क्षत्रप और सामंत खजुराहो जैसे मंदिरों का निर्माण करवाने में जुटे हुए थे।

जब फ्रांस में राज्यक्रांति होने को थी, तब महारानी मैरी भूखे प्रजाजनों को रोटी न मिलने पर केक खाने की मासूम सलाह दे रही थीं।

जब 1857 में लखनऊ पर ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज चढ़ी आ रही थी, तब बकौल प्रेमचंद, लखनऊ के नवाब शतरंज की बिसात में उलझे हुए थे।

जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भारत राजनीतिक दिशा और लक्ष्य खो बैठा था, तब हमारे देश की सरकार रूस, फ्रांस और न जाने कहाँ-कहाँ भारत महोत्सव मनाने में मगन थी।

और जब भारत में महंगाई आसमान छू रही है, अनाज और सब्जियां मिलना तक दुश्वार हो रहा है तथा समूचा सत्तातंत्र भ्रष्टाचार के कीचड़ में आपादमस्तक लिथड़ा हुआ नजर आ रहा है, तब इस देश का सुविधाभोगी वर्ग क्रिकेट के नशे में डूबा हुआ है।

भारत इस समय अपने राजनैतिक इतिहास के एक बेहद नाजुक मोड़ से गुजर रहा है। आज वह आजादी और गुलामी के बीच जो फर्क है, उसे समझ पाने में असमर्थ नजर आता है। पूंजीवाद के नए अवतार ने देश को ऐसी चकाचौंध में डाल दिया है जहां किसी भी बात का सिरा मिलना लगभग असंभव हो गया है।

मुझे क्रिकेट से कोई परेशानी नहीं है, बशर्ते उसे एक खेल की तरह खेला जाए। लेकिन हकीकत यही है कि आज क्रिकेट खेल छोड़कर बाकी सब कुछ है। वह व्यापार है, प्रचार है, ग्लैमर है, राजनीति है; और अगर कार्ल मार्क्स के शब्दों को उधार लूं तो वह इस उपमहाद्वीप की जनता के लिए अफीम है। यहां शायद ''करेला और नीम चढ़ा'' की कहावत चरितार्थ हो रही है। देश धार्मिक कर्मकांडों में तो डूबा हुआ है ही, वह क्रिकेट में भी गाफिल है और जैसे इतना पर्याप्त न हो तो उसे पूरी तरह डूबा देने के लिए शराब पानी की तरह बह रही है। यद्यपि इस पानी मिली शराब के लिए गाढ़े पसीने की कमाई लुटाना पड़ती है।

भारत और क्रिकेट के बीच जो संबंध विकसित हुआ है वह अभूतपूर्व है। ब्राजील में फुटबाल, इंग्लैण्ड में रग्बी, अमेरिका में बेसबाल- ये सब राष्ट्रीय खेल की तरह खेले जाते हैं। इनके मैच देखने के लिए भारी संख्या में खेलप्रेमी एकत्र होते हैं। इन खेलों में भी सट्टा होता है; लेकिन जैसा जुनून भारत में क्रिकेट के प्रति पैदा किया गया है, वैसा कहीं और देखने नहीं मिलता। इस खेल को राष्ट्रीय गौरव से जोड़ कर भारतवासी आत्मवंचना का शिकार हो रहे हैं। कोई भी खेल हो, उसमें हार-जीत तो होती ही है। थोड़ी देर का आनंद, थोड़ी देर की उत्तेजना, थोड़े समय का रोमांच- उसके बाद सब कुछ सामान्य हो जाना चाहिए। लेकिन हमारे यहां नजारा कुछ और ही है। आजकल जिस तरह जगह-जगह पर भगवान के चित्र के मूर्ति के ऊपर अथवा सामने चौबीस घंटे बिजली का दीया जलते रहता है वैसे ही हम क्रिकेट के देवताओं के सामने चौबीस घंटे माथा टेके नजर आते हैं।

हम जानते हैं कि हमारे देश में क्रिकेट के खेल में कितनी चालबाजियां की जा रही हैं। क्रिकेट खिलाड़ियों और प्रबंधकों के ढेरों स्कैण्डल सामने आ चुके हैं। कुछ साल पहले स्थिति यहां तक पहुंच गई थी कि इस खेल को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा था। क्रिकेट की लोकप्रियता में भारी कमी आ गई थी, लेकिन फिर आमिर खान 'लगान' फिल्म लेकर आए तथा क्रिकेट के साथ स्वाधीनता संग्राम का मिथक जोड़कर खेल को नए सिरे से वैधता प्रदान कर दी गई। आज तो हालत यह है कि 2 अप्रैल को मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में विश्व कप का पटाक्षेप हुआ नहीं कि टी-20 सीरीज का प्रचार प्रारंभ हो गया। गोया इस देश में लोगों को कोई काम ही नहीं है, कि उन्हें फुरसत ही फुरसत है कि दिन-रात क्रिकेट मैच ही देखते रहें।

क्रिकेट चाहे पांच दिन का हो, चाहे एक दिन का, चाहे बीस ओवर का, उसका उद्देश्य यदि मनोरंजन है तब तक तो ठीक है, लेकिन जब खिलाड़ी आपादमस्तक बिकने लगे और खेल का मैदान विज्ञापनों से अंट जाए तो फिर यह खेल नहीं व्यापार हो जाता है। दरअसल यह  बहुराष्ट्रीय कारपोरेट घरानों की व्यापारिक साजिश ही है जिसने हमारे देश में क्रिकेट को इतना ऊंचा दर्जा दे दिया है। यह तथ्य जनता के ध्यान में बार-बार लाने की जरूरत है कि भारत में लगभग बीस-पच्चीस करोड़ लोग मध्यवर्ग में आते हैं: वैश्वीकरण के पिछले दो दशकों में इसे भांति-भांति से लुभाने की कोशिश की गई है। उसे समझाया गया है कि जीवन में कुछ भी अलभ्य नहीं है। उसे नित प्रतिदिन अपने या अपने परिवार के ऊपर खर्च या ज्यादा खर्च करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। ''शॉप अन्टिल यू ड्रॉप'' उसके जीवन का मूलमंत्र बना दिया गया है। अब कोई गालिब नहीं है जो यह कहे कि ''बाजार से निकला हूं खरीदार नहीं हूँ''। आज भारत का मध्यमवर्गीय नागरिक या तो उदासीन मतदाता है या फिर उत्फुल्ल उपभोक्ता। एक दुरभिसंधि के तहत उसके नागरिक बने रहने का विकल्प मानो समाप्त कर दिया गया है।

इस मध्यमवर्गीय उपभोक्ता को वह सब कुछ चाहिए जो बाजार में है; और बाजार उसे दोनों बाँहें पसारे अपनी ओर बुला रहा है। इस षड़यंत्र में सब शामिल हैं: याने सिर्फ माल बनाने और बेचने वाले ही नहीं, बल्कि राजनेता, उद्योगपति, मीडिया मालिक, क्रिकेट खिलाड़ी, फिल्मी सितारे और सट्टाबाजार के रहस्यमय नियंत्रक भी। इन सबने मिलकर जनता को बेहोश कर बाजार के सामने फेंक दिया है कि जितना नोंच सकते हो नोंच लो, हमारा मुनाफा हमें जरूर मिल जाना चाहिए।

7 अप्रैल 2011 को देशबंधु में प्रकाशित

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