मेरा एक प्रस्ताव
मेरा एक प्रस्ताव है। कोई टी.वी. चैनल नक्सल समस्या पर खुली बहस का आयोजन करे। यह बहस कम से कम एक घंटे की हो और इसमें विज्ञापन के लिए ब्रेक न लिया जाए। बहस में पक्ष और विपक्ष के रूप में सिर्फ दो ही वक्ताओं को आमंत्रित किया जाए। नक्सल समस्या का सीधा संबंध शासन व्यवस्था से है तो शासन का पक्ष छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह प्रस्तुत करें। इस समस्या के भीषण रूप से वे पिछले पांच साल से जूझ रहे हैं। आज संयोगवश सलवा जुड़ूम को भी पांच साल पूरे हो गए हैं, यद्यपि अब सलवा जुड़ूम का नाम भूले भटके ही कोई लेता है। दूसरे पक्ष से याने उनमें से जो शासन की रीति-नीति से सहमत नहीं हैं किसी एक व्यक्ति को चुनना कठिन होगा। इसके लिए कुछ अर्हताएं रखी जा सकती हैं। ऐसे व्यक्ति को छत्तीसगढ़ का भलीभांति ज्ञान हो; आदिवासी समाज के बारे में उसका सम्यक अध्ययन हो; तथा नारेबाजी में नहीं बल्कि तर्क प्रणाली में विश्वास रखता हो। ऐसे एक प्रवक्ता डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा हो सकते हैं। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह अथवा मणिशंकर अय्यर भी इस रोल के लिए निभाने के सुपात्र हैं। इसमें एक शर्त यह भी है कि चर्चा हिन्दी में हो ताकि देश की बहुसंख्यक जनता उसे ग्रहण कर सके। कार्यक्रम का सूत्रधार ऐसा कोई व्यक्ति हो जो अपनी होशियारी थोपने के बजाय चर्चा का नियमन ठीक से कर सके। भारत में सैकड़ों टी.वी. चैनल हैं। उनमें से कोई न कोई इस प्रस्ताव पर अमल करने के लिए राजी हो सकता है। निजी चैनलों के साथ दिक्कत है कि वे बिना विज्ञापन के जीवित नहीं रह सकते। उन्हें इतनी छूट हो कि कार्यक्रम शुरू होने के पहले पंद्रह मिनट तक जितने चाहे उतने विज्ञापन दिखा दें, लेकिन बीच चर्चा में कोई व्यवधान न हो। अगर निजी चैनल राजी न हों तो दूरदर्शन अथवा लोकसभा चैनल इस सुझाव पर गौर कर सकते हैं। यदि उन्हें भी बात न जंचे तो दिल्ली अथवा रायपुर में किसी अन्य संस्था द्वारा आमंत्रित श्रोताओं के बीच यह सार्वजनिक चर्चा हो। इसमें श्रोताओं को दर्शकदीर्घा के नियमों का पालन करते हुए चुप बैठना होगा। हस्तक्षेप की अनुमति नहीं होगी। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर जैसी प्रबुध्दजनों की कोई संस्था यह पहल कर सकती है। सूत्रधार के लिए एनडीटीवी की निधि राजदान, दूरदर्शन की नीलम शर्मा तथा एनडी टीवी हिन्दी के पंकज पचौरी के नाम ध्यान आते हैं जो पूरी तैयारी के साथ तथा जानकारियां जुटाकर शालीनतापूर्वक कार्यक्रम का संचालन करते हैं तथा व्यर्थ की बातें नहीं करते। इस प्रस्ताव का मंतव्य स्पष्ट है और महत्व स्वयंसिध्द। डॉ. रमन सिंह पिछले पांच साल में बार-बार कह चुके हैं कि वे किसी भी मंच पर इस मुद्दे पर सार्वजनिक बहस के लिए तैयार हैं। जहां तक हमारी जानकारी है आज तक किसी भी टीवी चैनल ने उनके साथ विस्तारपूर्वक चर्चा करने या बहस में भाग लेने की कोशिश नहीं की। जो प्रबुध्दजन अखबार या टीवी के माध्यम से इस बारे में अपने विचार जनता के सामने रखते हैं, उन्होंने भी जिस प्रदेश की मुख्य समस्या है, वहां के शासन से खुलकर बात करने की कोई पेशकश की हो, यह ध्यान नहीं पड़ता। दूसरी तरफ डॉ. रमन सिंह अथवा उनके शासन ने अपने से भिन्न मत रखने वालों के साथ संवाद कायम रखने की कोई कोशिश नहीं की। छग शासन के पास ऐसे अवसर थे जब प्रदेश आए सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ बातचीत की जा सकती थी, किंतु इन अवसरों को व्यर्थ जाने दिया और दोनों पक्षों के बीच दूरियां बढ़ती गईं, अविश्वास गहराता गया। भारत में शास्त्रार्थ की बहुत पुरानी परंपरा है। इसका प्राचीनतम उदाहरण राजा जनक की राजसभा में याज्ञवल्क्य और गार्गी के संवाद में मिलता है। उनके बाद हमारे सबसे बड़े दार्शनिक शंकराचार्य ने तो अनेकानेक शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त कर जगद्गुरु की पदवी पाई थी। याें भी सभ्य समाज में, और खासकर जनतांत्रिक समाज में तर्क-वितर्क और परस्पर चर्चा से किसी भी समस्या का समाधान निकालने की परंपरा अनिवार्यत: रहती है। दुर्भाग्य से यह परंपरा आज के भारत में समाप्त प्राय: है। टीवी पर जो बहसें होती हैं उनमें कोई सार नहीं होता तथा उन्हें सिर्फ मनोरंजन के लिए ही सुना जा सकता है। अब तो चूंकि कुछ घिसे-पिटे चेहरे ही बार-बार टीवी पर दिखाई देते हैं, इसलिए मनोरंजन का तत्व भी सूखते जा रहा है। ऐसे में आवश्यक है कि जनता के सामने एक स्वस्थ बहस के माध्यम से विचार सामने आएं, जिन्हें आधार बनाकर निर्णय लिया जा सके कि कौन कितना सही और कितना गलत है। स्वस्थ बहस का अर्थ यह भी है कि आप सिर्फ श्रोताओं से उन्मुख नहीं होते, आत्ममंथन भी साथ-साथ करते चलते हैं। इससे समाधान के सूत्र मिलने की संभावना बन जाती है। मेरा मानना है कि छत्तीसगढ़ में नक्सल समस्या पर अब तक भावावेश में ही बात होती रही है। कोई एक घटना होती है, उस पर उत्तेजना फैलती है, और दो-चार दिन बाद मामला शांत हो जाता है। कुछ अंतराल के बाद फिर कोई वारदात होती है और थोड़े समय के लिए लोग फिर आंदोलित हो उठते हैं। ऐसी तात्कालिक प्रतिक्रिया से कोई समाधान निकलने वाला नहीं है। यह प्रदेश का दुर्भाग्य है कि हम क्षणिक उत्तेजना में विचार प्रक्रिया को ही खारिज करने की बात करने लगते हैं। जब समाज में विचारहीनता का वातावरण हो तो उससे सिर्फ निहित स्वार्थ की ही पूर्ति होती है। अगर जनता अपने आपको विचार प्रक्रिया से काट ले तो उसकी सोच गलत दिशा में मोड़ी जा सकती है। इसलिए यह आवश्यक है कि समाज में विचारहीनता का वातावरण न बने। एक उदाहरण से बात स्पष्ट होगी। आज ही किसी अखबार में गांधी टोपी पहने फोटो के साथ एक पुलिस अधिकारी आर.के. विज का लेख छपा है कि पुलिस वाले ही असली गांधीवादी हैं। लेख में इन सान ने बुध्दिजीवियों की काफी लानत-मलामत की है। मैं नहीं जानता कि मुख्यमंत्री के ध्यान में यह लेख आया कि नहीं, लेकिन जब मुख्यमंत्री देश के सेनाध्यक्ष के सार्वजनिक बयान पर, उचित ही, आपत्ति करते हैं तो उन्हें अपने मातहत अधिकारियों को भी बयानबाजी करने से रोकना चाहिए। यह इस प्रदेश की विडम्बना है कि एक पुलिस अधिकारी बुध्दिजीवियों पर लानतें भेज रहा है और बुध्दिजीवी खामोश बैठे हुए हैं। इसकी परिणति क्या हो सकती है, पाठक स्वयं ही अनुमान लगाएं। 7 जून 2010 को देशबंधु में प्रकाशित |
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