मेरे सामने रायपुर, जबलपुर व भोपाल की तस्वीरें हैं। रायपुर में कभी 130 तालाब हुआ करते थे। अब ले-देकर तीस बचे हैं। जबलपुर में तो कितने ही मोहल्ले तालाबों के नाम पर जाने जाते थे- रानीताल, चेरीताल, अधारताल, फूटाताल, मढ़ाताल, हनुमान ताल, श्रीनाथ की तलैय्या; यहां तक कि चोर बावली व साठिया कुआं भी। ये सब कहां हैं? भोपाल के बारे में कहावत मशहूर थी- ''ताल तो एक भोपाल ताल बाकी सब तलैय्या।'' आज यह कहावत भी झूठी पड़ गई। सवाल उठता है कि क्या मीडिया ने इन तालाबों के खत्म होने या पाटे जाने के बारे में कभी आवाज उठाई? रायपुर के बूढ़ा तालाब को रीचार्ज करने वाले दलदली मैदान पर इंडोर स्टेडियम बन गया और जबलपुर के मढ़ाताल में विशाल शॉपिंग कॉम्पलेक्स। भोपाल में बड़े तालाब के किनारे की जमीनें हड़प ली गईं। इन सब पर अखबार मौन साधे रहे। हमारे पुरखों ने अपने जबरदस्त अध्ययन और अनुभव के प्रमाण से ये तालाब बनवाए थे कि वर्षा जल इनमें संचित रहेगा तो पानी का संकट कभी नहीं होगा। अगर मीडिया ने ऐसे तथ्यों को ध्यान में रखकर उनका सम्यक विश्लेषण किया होता तो उससे जनमत जागृत करने में मदद मिलती, लेकिन ऐसा नहीं हो सका।
यही निराशा समाधान को लेकर भी उपजती है। यदि मीडिया को विषय का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है तो वह समाधान किस बूते पर सुझाएगा! यह अवश्य है कि अपने व्यवसायिक हितों के मद्दे नज़र मीडिया कभी-कभी जनजागरण अभियान चलाने जैसी पहल करता है, लेकिन अधूरी सोच के चलते उसका कोई अनुकूल नतीजा नहीं निकलता। भारत में वर्षा जल का संचय प्राचीन समय से मुख्य रूप से तालाबों के माध्यम से होता था। दूसरी ओर पहाड़ों के पेड़ वर्षा जल को अपनी बाँहों में समेट लेते थे और फिर पहाड़ों की कोख से बारहमासी झरने फूटते थे जो नदियों को जलराशि से समृध्द करते थे। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जगह-जगह गडरिया नाला, बंजारी नाला, चोरहा नाला आदि मिल जाएंगे। इनके दिए उपहार से हमारी नदियाँ सदानीरा कहलाती थीं। लेकिन इन पर ध्यान देने के बजाय मीडिया का ध्यान गया भी तो देवास जिले के प्रचारप्रिय कलेक्टर की पहल पर कि वे रूफ वाटर हार्वेस्टिंग करके देवास को जलसंकट से मुक्ति दिला रहे हैं। आज वही देवास बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहा है। एक देवास ही क्यों, सर्वत्र नेता, अधिकारी ऐसा आडंबर खड़ा करते रहते हैं। कहने का आशय कि या तो अपने निहित स्वार्थों के चलते मीडिया ऐसे खोखले प्रयत्नों मे भागीदार बन जाता है या फिर अपनी मूर्खता में ऐसे छलावों का शिकार हो जाता है।
मेरा मानना है कि मीडिया यदि जलसंकट से निपटने में प्रभावी भूमिका निभाना चाहता है तो उसे दूसरों को सलाह देने के पहले खुद को तैयार करना पड़ेगा। रोजमर्रा की खबरें छापकर या क्षणजीवी पहल का हिस्सा बनकर या छोटे-मोटे संवाद परिसंवाद में भागीदारी करने से कुछ नहीं होगा। मैं संक्षेप में मीडिया के विचारार्थ कुछ बिन्दु रखना चाहता हूं जो निम्नानुसार है-
1. जल को संसाधन मानना बंद करें। वह प्रकृति का अनुपम वरदान है तथा उसका सम्मान करने से ही हम जीवित रह पाएंगे।
2. जल पर सबसे पहला हक आदमी और जानवर दोनों के पीने के लिए, फिर खेती के लिए, फिर निस्तार के लिए और फिर उद्योगों के लिए इस प्राथमिकता में होना चाहिए।
3. नगदी फसल, फूलों की खेती, गैर देशज फलों की खेती जैसे प्रलोभनों से बचना चाहिए। अपनी जलवायु में जो फसल अनुभव सिध्द रूप से हो सके वहीं वांछित है। जो मालव धरती कभी गहन-गंभीर व पग-पग पर नीर का वरदान प्राप्त थी, आज वहाँ स्ट्रॉबेरी आदि के उत्पादन से जलस्तर घट रहा है। यही स्थिति हौशंगाबाद जिले में गन्ना उगाने एवं महाराष्ट्र के पुणे-नासिक आदि में अंगूर उगाने से हो रही है।
4. जल पर समाज का सामूहिक हक होना चाहिए। उसके लिए जल पंचायत और नदी संसद जैसी स्वायत्त, अधिकार संपन्न धारणाओं को मूर्तरूप देने की आवश्यकता है ताकि सरकार में बैठे लोग मनमाने निर्णय न ले सकें।
5. तालाबों का पाटना तुरंत बंद हो व सौन्दर्यीकरण शब्द को एकदम खारिज कर दिया जाए। झील और तालाबों के लिए अलग से प्राधिकरण बने जो पानी का युक्ति-युक्त उपयोग तय कर सके।
6. कारखानों को गर्मी और सूखे के समय पानी बिल्कुल भी न दिया जाए। वे कैप्टिव पॉवर प्लान की तरह अपने-अपने तालाब बनाएं और उनमें इतना पानी रखें जिसमें अप्रैल-मई दो महीने का काम निकल सके। खेती का पानी उन्हें देना सरासर नाइंसाफी है।
7. कोकाकोला, पेप्सीकोला याने शीतल पेय बनाने वाले कारखानों को या तो पानी दिया ही न जाए और यदि दिया जाए तो बहुत महंगी दर पर। अथवा इनकी बिक्री कीमत सरकार इतनी घटा दें ताकि ये पानी को सोने के भाव बेचना छोड़कर दूसरा व्यापार करने की सोचें।
8. हरेक जगह की अपनी विशेष भौगोलिक परिस्थिति होती है। वहां जल संचय की जो पारंपरिक विधियां रही हैं उन्हें नए सिरे से अमल में लाया जाए। पुराने कुएं, बावड़ी पुनर्जीवित किए जाएं और नए बनाने के लिए समाज को प्रोत्साहित किए जाए।
9. हमारे बीच अनुपम मिश्र, मेधा पाटकर, राजेन्द्र सिंह, रामास्वामी अय्यर जैसे जल विशेषज्ञ मौजूद हैं। इनकी बात गौर से सुनी जाए और उस पर अमल किया जाए।
10. देश में निरंतर बढ़ती आबादी भी जल संकट का एक कारण है। उसे सार्वजनिक बहस के एजेंडा में दुबारा लाने की जरूरत है।
11. पानी की बर्बादी तो रोकना ही चाहिए। इसके लिए बहुत से उपाय हैं वे अमल में लाई जाए।
12. वर्तमान में लागू राष्ट्रीय जल नीति को समाप्त किया जाए। पानी को व्यवसायिक लाभ की वस्तु न बनाया जाए। जलस्रोत निजी हाथों में न हों- न देशी न विदेशी।
25 जून 2009 को देशबंधु में प्रकाशित
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