Monday, 21 May 2012

पत्रकारिता और भारतीय समाज





हम जब पत्रकारिता और भारतीय समाज के रिश्तों की व्याख्या करने की कोशिश कर रहे हैं तब यह देख लेना प्रासंगिक होगा कि भारतीय समाज के विशेष संदर्भों से परे व्यापक समाज के साथ पत्रकारिता का संबंध कैसा है। यह स्पष्ट है कि पत्रकारिता और समाज का परस्पर गहरा संबंध है और यह अनेक स्तरों पर जुड़ता है। पत्रकारिता के विभिन्न माध्यम मुख्यरूप से समाज में हो रही हलचलों व घटनाओं का वितरण एवं प्रसारण करते हैं। इन्हें ही हम समाचार की संज्ञा देते हैं। लेकिन यह जानना महत्वपूर्ण है कि समाचार अथवा अन्य प्रसारण योग्य सामग्री का स्वरूप क्या है? उसके विभेद क्या हैं और उद्देश्य क्या हैं? एक सामाजिक मनुष्य को समाचार की आवश्यकता क्यों होती है- यह इस दृष्टि से एक महत्वपूर्ण बिन्दु है। जैसा कि मैं समझता हूं समाचार मनुष्य की बौध्दिक और मानसिक क्षुधा को शांत करने का काम करते हैं। इसी जरूरत के चलते पत्रकारिता का आविष्कार हुआ है। 

पूछा जा सकता है कि समाज में यह क्षुधा क्यों जन्म लेती है। उत्तर ढूंढना कठिन नहीं है। हम स्कूल की किताबों में पढ़ते आए हैं मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के अंग के रूप में एक व्यक्ति शेष समाज से जुड़ने की स्वाभाविक आकांक्षा रखता है। इस जुड़ने की प्रक्रिया में वह स्वमेव जिज्ञासु बन जाता है। एक दूसरे के बारे में जानने की उत्कंठा उसे सदैव बनी रहती है। पत्रकारिता के माध्यम से वह न सिर्फ समाचार पाता है वरन् उन पर विचार करता है, विश्लेषण करता है और चर्चा करता है। चर्चा करते हुए वह मानो एक समूह के भीतर अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है कि मैं हूं, मैं थोड़ा-बहुत जानता हूं और मैं तुमसे अलग नहीं हूं। वह इसके आगे किसी समाचार विशेष पर अपनी राय देने का काम भी करता है और उसमें कहीं अपने आत्मविश्वास को व्यक्त करने का एक मंच पाता है। यह कहना शायद जरूरी नहीं है कि एक सामाजिक प्राणी जो समाचार चाहता है उसके विभिन्न रूप हो सकते हैं जैसे राजनीतिक, आर्थिक सांस्कृतिक इत्यादि।

नागरिक की पत्रकारिता से जुड़ने की प्रक्रिया यहीं समाप्त नहीं होती। उसकी जिज्ञासा कुछ और बढ़ जाती है। वह अब खबरों का कार्य कारण विश्लेषण पाना चाहता है जिसके आधार पर किसी भी मुद्दे पर वह अपनी एक मुक्कमल राय कायम कर सके। स्वाभाविक है कि ऐसा घटित होते हुए लोकशिक्षण की प्रक्रिया उसमें अपने आप जुड़ जाती है। समाचार का पाठक अनजाने में ही सही खबरों की व्याख्या करना प्रारंभ कर देता है और फिर उन्हें अपने विवेक की कसौटी पर तौलते हुए एक नागरिक के रूप में अपनी भूमिका सुनिश्चित करने की ओर बढ़ता है। यहां मैं इतना कह दूं कि पत्रकारिता चूंकि जनसंचार का माध्यम है तो संवेदना के विस्तृत धरातल पर मनोरंजन का उद्देश्य भी एक सीमा तक उसका हिस्सा सा बन जाता है। 
अब हम यह देखें कि पत्रकारिता की समाज के साथ जुड़ने की यह जो बहुविध भूमिका है उसे निर्धारित करने वाले प्रमुख उपकरण कौन से हैं। इसमें निश्चित रूप से पहला व अनिवार्य उपकरण भाषा है। इधर सौ साल में प्रौद्योगिकी के विकास के साथ पत्रकारिता के नए आयाम खुले हैं और नए माध्यम स्थापित हुए हैं जिनके कारण अनेक भौतिक उपकरण भी अनिवार्य हो गए हैं। दूसरे क्रम पर मैं समाज विशेष के सांस्कृतिक परिवेश और परंपराओं को रखना चाहूंगा। हर देश या समाज अपनी विशिष्ट परंपराओं के आधार पर ही अपनी पत्रकारिता का विकास करता है। इसी में तीसरे क्रम पर देशकाल की विशेष परिस्थितियों और आवश्यकताओं को रख सकते हैं।

इसे चाहें तो आप परंपरा के विकास के रूप में देख सकते हैं। मेरी दृष्टि में अंतिम उपकरण भी कम महत्वपूर्ण नहीं है और वह है पत्रकारिता पर स्वामित्व का प्रकार एवं चरित्र।

जब हम भारतीय समाज के विशेष संदर्भ को लेकर बात कर रहे हैं तो भाषा का मुद्दा बहुत स्पष्ट है। भारतीय समाज की आशा-आकांक्षा की पूर्ति एवं पत्रकारिता के साथ उसका आत्मीय संबंध भारतीय भाषाओं में ही हो सकता है। फिर ऐतिहासिक परंपरा पर दृष्टिपात करे तो यह सहज ही ध्यान आता है कि दो सौ बाइस साल पहले प्रकाशित हिकी का अखबार अंग्रेज वायसराय के अत्याचारों व अनाचार का विरोध करने के लिए निकाला गया था। इसके लिए हिकी को पहले जेलयात्रा और फिर निर्वासन के लिए मजबूर होना पड़ा था। इसी परंपरा में याद रखना होगा कि स्वाधीनता संग्राम में अखबारों में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, लाला लाजपतराय व पंडित नेहरू आदि ने स्वयं अपने अखबार निकाले थे। इसीलिए हमारे यहां आम धारणा बन गई है कि पत्रकारिता पहले मिशन हुआ करती थी।

अखबारों की भूमिका के अलावा आकाशवाणी, दूरदर्शन और फिल्मों की परंपरा पर भी गौर कर लेना उचित होगा। जहां तक आकाशवाणी की बात है आजादी के तुरंत बाद के दौर में बी.वी. केसकर केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे व उनके साथ आकाशवाणी के महानिदेशक के पद पर जगदीशचन्द्र माथुर काम कर रहे थे। इस दौर में आकाशवाणी ने भारतीय संगीत, साहित्य एवं अन्य कलारूपों के विकास एवं संवर्धन में गहरी भूमिका निभाई। 
बिसमिल्ला खां द्वारा रचित सिग्नेचर टयून के साथ आज भी आकाशवाणी की सुबह होती है। हिन्दी के कितने ही नामचीन लेखकों ने आकाशवाणी में काम किया। इसी तरह टी.वी. की शुरूआत 1975 में भारतीय उपग्रह अनुसंधान संगठन के उपग्रह शैक्षणिक दूरदर्शन प्रयोग के साथ हुई जिसमें उम्मीद की गई कि दूरदर्शन गांव-गांव तक पसरे भारत को शिक्षित करने में महत्वपूर्ण रोल अदा करेगा। यहां 'अछूत कन्या', 'दो बीघा जमीन', 'श्री 420', 'जागते रहो', 'सुजाता', 'मदर इंडिया', 'दो आंखें बारह हाथ' जैसी फिल्मों को भी याद कर लें, जो एक नया भारत रचने के महत्तर उद्देश्य से प्रेरित थीं।


 इस पृष्ठभूमि पर गौर करते हुए आज की स्थिति को देखें तो ऐसा लगता है कि पत्रकारिता को हमारे देश में सिर के बल खड़ा कर दिया गया है। 
भारतीय समाज के साथ उसका जो अनन्य और अटूट संबंध होना चाहिए था वह बिखर गया है। इसके कारण क्या हैं? शायद सबसे बड़ा फर्क तो स्वामित्व के स्वरूप में आया परिवर्तन है बड़ी पूंजी, बड़ा मुनाफा, इतर व्यवसाय, राजनीतिक महत्वाकांक्षा- इन सबने मिलकर पत्रकारिता के मूल स्वरूप को लील लिया है। यूं तो पहले भी पूंजीपतियों द्वारा नियंत्रित प्रेस था लेकिन उस वक्त के समाचार पत्र मालिकों में बराएनाम सामाजिक प्रतिबध्दता थी जो अब पूरी तरह खत्म हो चुकी है। इसके साथ-साथ पत्रकारों की बात की जाए तो स्पष्ट है कि हमने गणेशशंकर विद्यार्थी, बाबूराव पराडकर, बी.जी. हार्निमन, सैय्यद अब्दुल्ला, ब्रेलवी, एस. सदानंद जैसे पत्रकार जिस संघर्ष पथ पर चले थे, उसे पूरी तरह त्याग दिया है। यही नहीं, आज भारत की पत्रकारिता जो भाषा अपना रही है वह किसी भी रूप में भारतीय समाज की अपनी भाषा नहीं है। ऐसा लगता है कि नवसाम्राज्यवादी ताकतों के दबाव में भारतीय भाषाओं को खत्म कर समाज को अपनी जड़ों से काटने का एक षड़यंत्र दिन-रात चल रहा है। यहां करेले पर नीम चढ़ने की कहावत इस रूप में चरितार्थ हो रही है कि देश की समृध्द बहुलतावादी सांस्कृतिक परपंराओं का तिरस्कार कर अंधविश्वास को बढ़ावा व पुनरुत्थानवादी शक्तियों को ताकत पहुंचाने का काम आज की पत्रकारिता कर रही है।

इस पृष्ठभूमि में भारत का सामाजिक परिदृश्य तथा उसकी मानसिक, आध्यात्मिक व भौतिक आवश्यकताएं दरकिनार कर दी गई हैं। देश की जनतांत्रिक राजनीति में आम नागरिक भरपूर ताकत के साथ भागीदारी कर सके, इसके अवसर चुन-चुनकर खत्म करने का काम पत्रकारिता के माध्यम से हो रहा है। ऐसे में एक तरफ समाज को नए सिरे से सोचने की जरूरत है कि वह पत्रकारिता के साथ किस तरह का रिश्ता रखे, दूसरी तरफ पत्रकारों व उनके संगठनों को भी थोड़ा रूककर विचार करना चाहिए कि वे किस दिशा में जा रहे हैं व क्या वह सही दिशा हैं? मैं अपने पत्रकार मित्रों से कहना चाहता हूं कि अब तक जनता हम पर बहुत विश्वास करते आई है लेकिन विश्वास और सम्मान की इस पूंजी को कब तक सम्हाल कर रख पाएंगे कहना कठिन है।


( वि.वि. अनुदान आयोग के सहयोग से के.सी. कॉलेज मुंबई द्वारा पत्रकारिता और भारतीय समाज पर 13-14 फरवरी  2009 को आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्धाटन वक्तव्य।)

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